SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा पाठ २०५ INSIDHADIRAKAAMSUNDARRIERRORIES शुद्ध ही विद्यमान है, पर कमंडलु पीछिकाको ग्रहण भी जोवरक्षा पर मुनिधर्मका चारित्र शुदित करें है तथापि तहां नेत्र इंद्रिय करि शोध है ऐसे मुनींद्रनिने में समितिकी.मात्यार्थ पूज़ हूँ ॥६३७॥ ओं ही आदाननिवेपणसमितिधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽघ । व्युत्सर्गाख्यां समितिमघृणां नासिकानेलपायू पस्थस्थानान् मलहृतिविधौ सूत्रमार्गानुकूलं । रक्षतोऽन्यानपि सदयतां पोषयंतोप्युदगां धन्या दांतेंद्रियपरिकरा आददंत्वर्चनां मे ॥ ६३८ ॥ अरु जे नासिका नेत्र गुदा लिंग आदि स्थानत पलका निष्कासनविधिमें सूत्रमार्गके अनुकूल अन्य प्राणी मात्रने रक्षा करते अर नहीं है घृणा जामें ऐसो उत्कट व्युत्सर्ग नामक समितिने अरु सदयपणाने पोपते धन्य गुरु जे हैं ते पेरो कियो पूजानै ग्रहण करो॥६३८॥ ओं ही व्युत्सर्गसमितिपालकसाधुपरमेष्टिभ्योऽय। उष्णः शीतो मृदुलकठिनौ स्निग्धरूक्षौ गुरुर्वा __ स्तोकः स्पर्शोष्टतय उदितस्पर्शनात् सप्रमादं । रागद्वेषावपि न दधतश्चेतनाचेतनेषु किंच स्त्रीणां वपुषि विषये तान्यजेऽहं मुनींद्रान् ॥ ६३९ ॥ स्पर्श उष्ण शीत कोपल कठिन सचिक्कण रूक्ष वा भारो हलको इनि भेदनितें आठ प्रकारको है तात स्पर्शने द्रियका प्रमादनै तथा चेतन अचेतन विषयमैं रागद्वषनिन नहीं धारण करते अर स्त्री विषय शरीरमैं तो कदाचित रागद्वेष नहीं करते मुनोंद्रने मैं पूजू DESCRIBEGULECISCEBB% %Embedo * २०५ Jain Educatio n al For Private & Personal Use Only maginelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy