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प्रतिष्ठा
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याथातथ्यं श्रुतनिगमयोर्जानतः प्रश्नकर्तु
भिप्रायं वचनसमितीर्धारकान् पूजयामि ॥ ६३५ ॥ लोभ क्रोध आदि वैरीनिका समूहके जयतें अर भयमोहका नाशते निःशल्ययुक्त अरु जिनवचन रूप अमृतका कंठमें पान ताकरि पुष्ट । अरु शास्त्र सिद्धांतके यथार्थ स्वरूपने जानते तथा प्रश्नकर्ताका अभिप्रायकू भी जानते ऐसे वचनसमितिने प्राप्त मुनींद्रनिने मैं पूजू । हूँ॥६३५॥
ओं ही भाषासमितिधारकसाधुपरमेष्टिनेऽर्घम् । षट्चत्वारिंशदतिचरणामेडितत्यागयोगात्
दोनां चातुर्दशमलभुवां हापनात् कायहानि । अय्यासीनाममृतधिषणांभ्यासतोऽग्रे कृतार्थी (?)
मन्वानास्तेऽशनविरतयः पातु पादाश्रितं मां ॥ ६३६ ॥ छियालीस अतीचारका वारंवार साग करनेते अरु चोदह मलतें उत्पन्न दोषनिका सागते कायका नाशकू अमृत बुद्धिवत् कृतार्थ मानते अशन जो च्यार प्रकार भोजन ताके त्यागमें मुनींद्र हैं ते चरणारविंदने आश्रित कियों मैं जो है ताहि रक्षा करो॥६६॥
ओं ही एषणासपितिधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽर्य । वस्तुगाहं त्व परिणामादाननिक्षेपयोगा (?)
भावः पूर्वं दृढ़परिचयाद्विद्यते शुद्ध एव । पिच्छाकुंडीगृहणमपि ये रक्षणाचारहेतोः
कुर्वतोऽप्यन निहितदृशस्तान्यजे सत्समित्यै ॥ ६३७ ॥ वस्तुका ग्रहण मात्र नहीं परिणमपना करि दान कहिये आदान और निक्षेप इनका योगको अभाव पहिली ही गाढा परिचयतें जिनके
-RESMOLCAS EARCCXEKAURENCES
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