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________________ घोर पीड़ाका गृहरूप शरीरमैं वांछा तथा मरणनै संधारण करतो जैसे भुजनिकरि समुद्रन तिर तसे तिर सो यो साधु योकरि पूजिये प्रतिष्ठः २०८ LESSORRORRENCC ABOR 'ओं ही सापायिकावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽर्घम् । स्मारं स्मारं प्रकृतिमहिमानं तु पंचेश्वराणां प्रत्यक्ष वा मननविषयं बंदमानस्त्रिकालं । कर्मव्यूहक्षपणमसमं चर्करीत्यात्मवंत शुद्धस्फारं गमयति शिवं तं महांतं यजामि ॥ ६४५ ॥ अर पंच परमेष्ठीनिका निजमहिमानै स्मरणकरि अरु प्रत्यक्षवत् आपका मनन विषय त्रिकाल बंदतो अरु अतुल कर्मका समूहका नाशनै वारंवार कर है अरु आत्मानै शुद्ध विशद करि शिवमागमैं प्रवेश करसवै है सो महान् साधुनै पूजू हूँ॥६५॥ ओं ही बंदनावश्यगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयम् । चेतोरक्षःप्रसरणनिराकर्मणो तीर्थनाथ पादाब्जेषु प्रतिगुणगणे दत्तचित्तो मुनींद्रः। तेषां स्तोत्रं पठति परमानंदमात्मानुभावं किं वा शुद्धं सृजति स मया पूज्यते तद्गुणाप्त्यै ॥ ६७६ ॥ जो मुनींद्र चित्तरूप राक्षसका फैलाव निराकरणके अर्थि तोयकरादिका चरणकमलमैं तथा तिनका गुणमैं दिया है चित्त जाने असा होय है अरु तिनका स्तोत्र पर है, यदा आत्माका अनुमानै परमानंद शुद्ररूप रचे है सो साधुका गुणको प्राप्ति अर्थि मैं करि पूजिये COLOCA49- 6 R ECRETIRSARALA २. ओं ह्रीं स्तवनावश्यकगणधारकसाधपरमेष्ठिभ्योऽयम् । 0 Jain Education anal For Private & Personal Use Only library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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