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________________ भविष्ठा १५० Jain Education स्मारं स्मारं गुणगणमणिस्फारसामर्थ्यमुच्चै प्राप्त्यर्थं प्रयतति जनो मोक्षतत्वेऽनवद्ये । न्तं भवभवगतानां प्रघातप्रकुलृप्त्यै सिद्धानेव श्रुतिमतिबला दर्चये संविचार्य ॥ ४५८ ॥ येह स सारी जन जिनका गुणका समूह रत्ननकी प्रचुर सामर्थ्यनें स्मरण कर उनकी प्राप्तिके अर्थि उच्चरूप निर्मल मोचतत्वमै प्रयत्न करें है, अर संसारगत विघ्ननकी निवृत्ति अर्थ मैं शास्त्र बल सम्यक् विवारि सिद्ध-मंगल पूजू हूं ॥ ४५८ ॥ ऐसें सिद्ध-मंगलकू अ देनाह्रीं सिद्धमंगलेभ्योऽर्घम् । रागद्वेषोरगपरिशमे मंत्ररूपस्वभावा मिले शat समकृतहृदानंदमांगल्यरूपाः । येषां नामस्मरणमा सन्मंगलं मुक्तिदायी त् यज्ञे वसुविधविधिप्रीणनैः प्राणिपूज्यं ॥ ४५६ ॥ बहुरी मैं रागद्वेषरूप सर्पका उपराम करने मैं सिद्धमंत्र स्वभावी अरु शत्रु र मित्रमैं सपान किया हृदय जिनने आनंद अरु मांगल्य रूप अरु तिनका नामका स्मरण ही सुन्दर मंगलको देनेवारो है, येही जान ऋ प्रकार सामग्रो करि सर्वपात्र प्राणो करि पूज्य साधुमंगलनें इस यज्ञमैं पूजू हूं ॥ ४५६ ॥ ऐसे साधुमंगलकू अर्घ देना । नहीं साधुमंगलायाम् । मूर्च्छा मूर्च्छा गुरुलघुभिदा द्वैधवर्त्मप्रदिष्टो जैनो धर्मः सुरशिवगृहद्वारदर्शी नितातं । सेव्यो विघ्नग्रहणनविधावुचमार्थेः प्रशस्तः संपूजेऽहं यजनमननोद्दामसिद्ध्यर्थमह्यम् ॥ ४६० ॥ For Private & Personal Use Only पाठ १५० elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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