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प्रतिष्ठा
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जो मुनिराज तपकी अतिशयरूप उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप, घोरतप ऋद्धि से विभूषित हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूं ॥ १५ ॥ आमोसहिए खेलो सहिएजल्लोसहिय तवसिद्धं । विप्पोसहिए सव्वोसहिए बंदामि तिविहेण ॥
६ ॥
जो योगी श्रमषैषधि, लौषधि, जल्लोषधि, विडौषधि, सर्वौषधि ऋद्धिके धारी हैं, उन्हें मैं मनवचनकाय तीनोंसे नमस्कार करता हू ॥ १६ ॥
श्रममुहघीरसथी सव्वी अक्खीण महाणसे बढ़े । मणवत्तिवचैवलिकायवरिणणो य बंदामि तिविहेण ॥ ७ ॥
जो तपस्वी अमृतस्रावी, मधुस्रावी, घृतस्रावी, रसस्रावी, तथा अक्षीण महानस ऋद्धियोंके धारक हैं उन्हें मैं मन वचन काय तीनोंसे नमस्कार करता हूं ॥ १७ ॥
वरकुटवीयबुद्धी पयागुसारीयसमिराणसोयारे । उग्गहसमत्थे तत्थविसारदे बंदे ॥ १८ ॥
मुनिराज को स्थधान्यो, एकबीज, पादानुसारित्व, स भिन्नश्रोतृत्व इन चार प्रकारकी बुद्धि ऋद्धिके धारक हैं, अवग्रह ईहामें समर्थ हैं, श्रुतार्थमें विशारद हैं उनको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १८ ॥
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आभिणिबोहियसुदई ओहिणाणमणणाणि सव्वणाणीय । बंदे जगप्पदीवे पच्चक्खपरोक्खणाणीय ॥ ६ ।
जो मुनिगण अभिनिबोधक, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ऋद्धियोंके धारक है उन प्रत्यक्ष परोक्ष ज्ञानसे भूषित जगतके दीपकों को मैं नमस्कार करता हूं ॥ १६ ॥
आयासततुजलसेढिचारणे जंघचारणे बंदे |
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पाठ
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