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________________ मतिष्ठा ७८ Jain Education farauइट्ठिहाणे विजाहरपण्णसमणे य ॥ २० ॥ जो मुनिराज आकाशगामिनी ऋद्धिसे संयुत हैं, तन्तु जल श्रेणी पर विना जोवबाधा पहुंचाये चलनेको ऋद्धिसे भूषित हैं, जो जंघाओं द्वारा आकाशमें गमन करनेकी शक्तिवाले हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूं ॥ २० ॥ इचउरंगुलगमणे तहेव फलफुल्लचारणे बंदे | मतवमहंते देवासुरबंदिदे बंदे ॥ २१ ॥ पृथ्वीसे चार अंगुल ऊंचे रह कर गमन करने की सामर्थ्य रखने वाले, फल फूलको किसी भी प्रकार बाधा न पहुंचाकर चलने की ऋद्धि अनुपम तपके तपने वाले और सुर असुरोंसे वंदनीय मुनिराजोंको में नमन करता हूं ॥ २१ ॥ वाले, जियभयजियउवसग्गे जियइंदियपरिसहे जियकसाये । जियरायदोसमोहे जियसुहदुक्खे मस्सामि ॥ २२ ॥ जिन्होंने समस्त प्रकारके भय जीत लिये हैं, जो समस्त उपसगोंको जीतते हैं, जिन्होंने इंद्रियोंपर विजय कर लिया है, जो समस्त परिपहों को जीतते हैं, जिन्होंने कषायोंपर विजय करलिया है, राग द्व ेष मोहको जीत लिया है, जो सुखदुःखको समान समझते हैं, उन योगिराजोंको मैं नमस्कार करता हूं ॥ २२ ॥ एवम श्रभित्थु अणयारा रायदोसपरिसुद्धा । संघस्स वरसमाहिं मज्झवि दुक्खक्खयं दितु ॥ २३ ॥ इस प्रकार जिन मुनिराजोंकी मैंने स्तुति की है वे यद्यपि रागद्वेषसे सर्वथा शुद्ध हैं तो भी संघके लिये श्रेष्ठ समाधि और मेरे लिये दुःखोंका नाश करें ॥ २३ ॥ इच्छामि भंते जोगभत्ति काओसग्गो कओ तस्सालोचओ अट्ठाईजजीवदोससुद्धेसु पण्णरसकम्मभूमीसु आदावणरुक्खमूल अन्भोवासठाणमोणवीरासणेक्कवासकुक्कडा सणच उत्थपरकरक्खवणादिजोग For Private & Personal Use Only 26 library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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