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________________ प्रतिष्ठा बहुविहपडिमट्ठाई णिसेजवीरासणोझवासीयं । अणिटु अकुटुंबदीये चतदेहे य णमस्सामि ॥११॥ जो बहुत प्रकारके प्रतिमायोगसे तप तपते हैं, जो वीरासन आदिको माडकर देहमें ममत्व छोड ध्यान धरते हैं उनको में नमस्कार करता हूँ॥१॥ ठाणियमोणवदीए अब्भोवासी य रुक्खमूलीय । धुदकेसमंसु लोमे णिप्पडियम्मे य बदामि ॥ १२ ॥ जो तपस्वी मौनधारण कर आतापन योग धारण करते हैं, वृक्षके नीचे ध्यान धरते हैं, उन निष्पतिकर्म युक्त मुनिराजोंको में नमस्कार करता हूँ ॥१२॥ जल्लमललित्तगत्ते वंदे कम्ममलकलुसपरिसुद्धे । दीहणहणमंसु लोये तबसिरिभरिए णमस्सामि ॥ १३ ॥ जिन मुनियोंका शरीर कर्ण नेत्र आदि अंगोंके मलसे तथा पसीनासे तो संयुक्त है परंतु जो कर्म मलसे परिशुद्ध होरहे हैं, जो समस्त परि६ ग्रहसे मुक्त हैं परंतु तपलक्ष्मीसे भूषित हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ॥१३॥ णाणोदयाहिसित्ते सीलगुणविहूसिये तवसुगंधे । ववगयरायसुदढे सिवगइपहणायगे बंदे ॥ १४॥ जो मुनिराज समस्त शीलके गुणोंसे भूपित हैं, तपसे वेष्टित हैं, ज्ञानवान हैं, रागद पसे विमुक्त हे जो मोक्ष माग में स्थित हैं उन्हें मैं बंदना || करता हूं ॥१४॥ उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे य घोरतवे। बंदामि तवमहंते तवसंजमइट्ठिसंपत्ते ।। '५ ।। RA- KAROBALASAKAL ७६ Jain Educar Ilonal For Private & Personal Use Only A lelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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