SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा २८ Jain Education अथ द्रव्यक्षेत्रकालभावानां शुद्धिरुपदिश्यते । अब याके आगे द्रव्य क्षेत्र काल भावनिकी विशुद्धि कहिये है द्रव्यं द्विविधमुद्गीतं सचित्ताचित्तभेदतः । कर्तृकारापकेंद्रादि प्रथमं बहुभेदयुक् ॥ १३ ॥ प्रतिमापात्रवेद्यादिस्तंभवस्त्राद्यनेकधा । अचित्तं तद्वयं योग्यं स्वस्वरूपानुभावतः ॥ १४ ॥ कि द्रव्य सचित्त अचित्तका भेदतें द्विप्रकार कहया है। प्रथम सचित्त द्रव्य तौ कर्ता प्रतिष्ठापक अरू इंद्र श्रादिक बहु प्रकार है। दूसरा प्रतिमा अरु पात्र वेदी स्तंभ वस्त्र आदि बहुभेद है सो इहां सचित्त अचित्त द्रव्य अपना अपना स्वरूपका उदयमें दोन्यू ही उचित है ॥ ११३ - ११४ ॥ अब क्षेत्र शुद्धि कहिये है क्षेत्रमार्यजननांचितं शुचि सुंदरं नदनदीतटाकयुक् । संनिधाननगरोपदेशकं तीर्थभूमिनिकटं विशालकं ॥ १५ ॥ कि क्षेत्र प्रथम तौ प्राये मनुष्यनि करि युक्त होय, पवित्र सुन्दर होय, नद नदी तालाव आदि करि युक्त होय अरु समीप प्राप्त है नगर अरु उपदेश देनेवारा जन जा विषै अरु तीर्थ भूमिके निकट होय अरु विस्तीर्ण होय ॥ ११५ ॥ पिपीलिकाकीटकवृश्चिकाहिशूका न यतोषरता न भूम्यां । प्रभीत्यग्निभयं न यत्र क्षवं प्रशस्तं जिनयज्ञकार्ये ॥ १६ ॥ न मूषिकासर्पविलोपरोधः श्मशान भूताद्युषितं न दुष्टं । विलोमजातीतरनीचगेहप्रवासितं क्षेत्रमपार्थदूरं ॥ १७ ॥ बहुरि कीढी कीडा वीक सर्प अरु कंटक आदि जहां नहीं होय अरु भूमिमैं ऊपरपणा नाहीं होय, अरु ईति भीति अग्निभय नहीं होय, मूषक सर्प आदिकं विल नाहीं होंय अरु श्मशानभूमि आदि कर व्याप्त नहीं होय तथा दूषित नहीं होय अरु वर्षाशंकर शुद्र नीचका गृह करि प्रवासित कहिये ऊजड़ हो, अरु खोटे कारणनिकरि दूर होय सो क्षेत्र प्रशस्त है | ११६-११७ ॥ For Private & Personal Use Only पाठ २८ relibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy