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________________ प्रतिष्ठा २५६ BORRECORERALESEARRESTERESOURCHORS प्रमाण देवकुमारनित संयोजित करि देवोपनीत ही वस्त्र भोजन पान भूषण फलादि सामग्रो करि उपासना करि यथेच्छ स्वगमें प्राप्त होतो भयो॥७१७॥ अत्र मातापित्रोर कनिवेशस्थानीयपूर्वप्रक्लुप्तमंडपोपस्कृतवेदिकायां भद्रासने मूलविवस्थापन विदध्यात् । इहां माता पिताका गोद स्थानापन्न पूर्वं जो मंडप भूषित वेदी थी उसमें भद्रासनमें मूलविवका स्थापन करें। दोलनारूढक्रीडां च विदध्युः पुरंध्रयस्तथात्र वान्या अपि प्रतिष्ठेयाः प्रतिकृतयः स्थाप्या इति दिक्। अर इहां ही इंद्राणो आदि सौभाग्यवती स्त्री अन्य भी दोलना क्रीडा (पालनामें) करै अर विव भी उस ही वेदीमें स्थापन करना । ऐसे यथा योग्य विधि करनी। यथा वा बालेंदुः प्रतिदिनमवद्धन्निजकरै स्तथायं श्रीसार्वोवधिमननयुक् किं च युवतां । अवाप्तः पित्रादेर्नुपपदगसाम्राज्यकमलां चापेषुद्रघणकरबालादिसहितः॥७६८॥ जैसे बालक चंद्रया अपने किरणनि करि प्रतिदिन वृद्धिने प्राप्त होय तैसें मानू येह सर्व हितकारी जिन अवधिज्ञानसंयुक्त युवा अवस्थाने | प्राप्त होतो भयो संतो पिताने दिया राज वा चक्रवर्ती पद लक्ष्मीने भोगतो भयो। तब राज्य अवस्थामें धनुष वाण मुगर तरवारि आदि शस्त्रयुक्त होतो भयो ॥७६८॥ ___ इति राज्योपभोगचिन्हानि शस्त्राण्यस्त्राणि च पुरः स्थापयेत् । या प्रकार राज्यके भोगोपभोग चिन्ह शस्त्र तथा अन अग्रभागमै स्थापन करै व्यवहारमात्र । RECRUSTORAGDAKarokMER २५१ anal For Private & Personal Use Only a relibrary.org Jain Education 1
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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