SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भतिष्ठा BASI TRICCHAPa4-%CECRe% ऋतुरसप्रसवैश्च रसादनवररसालसुदाडिमनागरैः । सलिलतः परिशोध्य हिरण्यजे विधुतिमद्भिरजं परिपूजयेत् ॥१॥ षट् ऋतुके रससंयुक्त सरस सुन्दर नेत्रनिके प्यारे अमृत समान पिष्ट ऐसे फल जल शोधन करि सुवर्ण पात्रमें स्थापि स्वयंभू भगवानने पूजिये ॥१०॥ वासांसि शुद्धानि सितानि धौतान्युद्भूतमात्राणि दशायुतानि । संधारयेत्पूजनकृत्प्रसन्नं चेतो यतः स्याबहुमूल्यकानि ॥२॥ और पूजक जा प्रकार प्रसन्नचित्त रहै ऐसा बहुमूल्य शुद्ध श्वेत धीत अर नवीन अखंडित वस्त्र धारण करै॥१०२॥ पात्राणि वेदीस्थलतोरणानि सर्वाण्यनेकान्युपकारणानि । नव्यानि चित्ताक्षिहराणि यज्ञे जीर्णत्वदुष्टत्वविधाच्युतानि ॥३॥ और पात्र तथा वेदी स्थल तोरण आदि सर्व उपकरण नवीन अर चित्त नेत्रकप्रिय ऐसे अर जीर्णपणा अर सदोषपणा आदि कुरीतिरहित यसमै प्रशस्त कहे हैं ॥१०३॥ सामग्रीयोजने शाट्यं कार्पण्यं योगवंचनं । ___न कदाचिन्मनस्वीति कुर्यात्स्वहितकामुकः॥ ४॥ सामिग्रीके योजनमें मूर्खपना अर कृपणपना अर योगरहितपणा कदाचित् भी ज्ञानी पुरुष अपने हितका इच्छुक नहीं करें॥१०॥ C ALCHARBARUIREES 004-00 AGAIN अथ प्रतिष्ठाफलं। अब यहां प्रतिष्ठाका फलने को हैंसंबंधो यभिधेयसंधिविषयाशक्यत्वकृत्यात्मतामाचार्याः प्रथमं विचार्य करणे ग्रंथस्य तत्रोद्यम। 24 Jain Education a n al For Private & Personal Use Only sonifimelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy