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________________ प्रतिष्ठा २६ Jain Education कुवतीह ममापि तन्मुनिवरानूनानुकं पालनात् सिद्धं तत्फलवर्णना खलु फलोद्देशे तथाऽऽवश्यकी ॥ ५ ॥ प्रथम भूमिका आचार्य कहै हैं-सो ऐसे कि सम्बन्ध तो प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव है। अभिधेय जो अभिधान करने योग्य ताकी सन्धि कहिये सन्धान मिलान अरु विषय जो वरार्थं वस्तु तामें अशक्यत्व अर्थात् अशक्य साधनत्वाभाव अर कृत्यात्मता कहिये करणेका फल, ऐसे च्यारि वार्ता जो हैं ताई प्रथम विचार करि श्राचार्य ह सो ग्रंथका करनेमें उद्यम करे हैं तैंसें ही प्रतिष्ठामें भी च्यारि प्रयोजन आवश्यक हैं और इह कहिये प्रतिष्ठामें भी मेरे गुरु की प्राचीन अनुकंपाका योग सिद्ध होय हैं तातैं निश्चय करि फलका उद्देश्यमें फलकी वर्णना आवश्यक है । भावार्थ- देशकालभवभावापेक्षया तो बहुत वार्ता ऐसा उत्तम कार्यमें आवश्यक हैं परंतु संबंध १ प्रयोजन २ अशक्यानुष्ठानत्वाभाव ३ कृतिफल ४ ये च्यारि प्रयोजन आवश्यक होय हैं ॥ १०५ ॥ ये कुर्वंति जिनेंद्रविंबमनघं सत्पंचकल्याणकारोपात्सुस्थितमत्र पुण्ययशसां वृद्धिः सुमार्गावनं । तेषां मार्गविवृद्धिकारकतया पुण्यानुबंधोदयात् यावच्चंद्र दिवाकरं दृशिकृतां सद्द्दष्टिलाभः परं ॥ ६ ॥ अरु जे पुरुष निःपाप कहिये माया मिध्या निदानरहित तथा ख्याति पूजा लाभ रहित पंचकल्याणका आरोपतें जिनेंद्र बिंबनै स्थापित करें हैं वापुरुषके पुण्य अरु यशकी वृद्धि होय है । अरु सुन्दर मार्ग की रक्षा होय है । अर उनके मार्ग की विशेष वृद्धि करवातें अरु पुण्यानुबंधका उदयतें यावच्च ंद्र अरु सूर्य तिष्ठ गे तावत् सम्यग्दर्शन योग्य भव्योंके सम्यग्दर्शनका लाभ उत्कृष्ट होय है । भावार्थ-यो लाभ कर्ताका आश्रय होवातें परम पुरुषार्थ प्रगट किया ऐसे जानो ॥ १०६ ॥ भ्रश्यत्पातककर्ममर्मनिगलात् स्वानंदथुप्रीणनमंतातीतगुणार्णवं मनसिजोद्रेकव्यतीतस्पृहं । शांतं विंवमपेक्षितं स्मृतमपि प्रत्यूहनिर्णाशनं मान्यं तत्सति चित्रमाश्रय इव स्यात्तत्प्रतिष्ठापने ॥७॥ ऐसे हैं कि गलित किया जो पातक कर्मका मर्मरूप बेडी तांत आनंदकी प्राप्तिमैं तत्पर अरु अनंत गुणका समुद्र अरु कामका बिकारमें नष्ट हो गई है वांछाजाकै अरु शांतरूप विंबने देखत मात्रही तथा स्मरण मात्र ही समस्त विघ्नका नाश होय है । सो जैसी भिति होय तैसा चित्राम होय तैसें प्रतिष्ठा होय तो विब समस्तके मान्य होय ॥ १०७ ॥ कल्याणपंचकविधिः स्वयमात्मसत्त्व कर्तव्यतानियत कर्मवशाज्जनेन । For Private & Personal Use Only पाठ २६ elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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