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________________ KISSAMACO SASSAMSUHAGRACHERSITE द्वारोपांतसुतोरणादिसुषमं छतेश्च हंसैरिव सेवार्थ स्थितवद्भि रबंधुरकृद्वाधातिगं भूयसा । घंटादर्शकसुप्रतीकविधुभाभंगारसिंहासनै र्भास्वद्भूतलमीशपूजनकृतां हस्तै शं स्थापितैः ॥३२१ ॥ चीनका कोमल सचिक्कण सुंदर आच्छादन वस्त्रनि करि ढक्या हुवा पूर्व निर्मापित किया अर उपरिभाग अनुयोग कहिये च्यारि हैं कलस जाम अर्थात एक उपरि मस्तक परि अर च्यार च्यारू कोणम कलस शिखराकारनि करि युक्त, अरु लंबायमान है पताकाका पट जाऐं अरु च्यारू दिशामें तिरस्कारिणी कहिये चढाई आदिकी कनात तिन करि वेष्टित, अरु उपरि छाजा तिन करि, युक्त, अरु द्वारके समीप शोभायमान है यक्ष-युगल जाके, अरु उन्नत अर मनको आनंद करणे हारो, अरु कोणम उद्भत है छोटी ध्वजा जा, अरु उछलती अर दृढ़ देदीप्यमान रज्ज न करि बंधननै प्राप्त भयो, अरु शब्दायमान किंकणी जे तुद्र घटा जिनका उदार शब्द है जहां, अरु नवीन बंदनवाला करि संयुक्त अरु पर्यंत भागमें स्थित है आठ मातिहार्य जामें, अरु स्वर्ग के विमानकी शोभाकू हंसनेवारो अरु चंऊं तरफ धूपका सुगंधस पृजित ऐसौ, अरु द्वारका प्रांतभागम तोरणादिकी शोभा संयुक्त, अरु मानू जिनेंद्रकी सेवा निमित्त आए हंसे समान स्थित छत्रन करि भूषित अर मेघकी बाधा-रहित अर प्रचुर घंटा, दर्पण, ठोणो, भाम'डल, झारी, सिंहासन आदि करि भूषित है भूतल जाको अरु तीन लोकपति जिनेंद्र-1 का पूजन करणेवारेनके हस्तन करि नित्य स्थापन किये ऐस मंडपके अग्रध्वजारोहण करना ॥३१६-३२१॥ अथ तत्रैव शेष विधिः। अब इहां विशेष विधि है सो वर्णन करिये हैं, चतुर्णिकायामरसंघ एष आगत्य यज्ञे विधिना नियोगं । स्वीकृत्य भक्त्या हि यथार्हदेशे सुस्था भवत्वान्हिककल्पनायां ।। ३२२ ॥ प्रथम चतुनिकायका जिनभक्त देवका समूह जे इहां यज्ञम आय विधि-पूर्वक अपना नियोगर्ने अंगीकार करि भक्ति करि यथायोग्य | स्थान तिष्ठ करि नित्य सेवामें सावधान होहु ॥ ३२२ ॥ C CASIA Jain Education For Private & Personal Use Only A helibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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