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________________ प्रतिष्ठा १०१ Jain Education आयात मारुतसुराः पवनोद्भटाशाः संघहसंलसितनिर्मलतांतरीक्षाः । वात्यादिदोषपरिभूतवसुंधरायां प्रत्यूहकर्मनिखिलं परिमार्जयंतु ॥ ३२३ ॥ अरु - भो पवनकुमार जातिके देवहो ! तुम, पवन करि उद्भट किई है दिशा जिनि, अरु पवनका संघट्ट करि लसित निर्मल किया है आकास जिनने, अरु पवनका समूह आदि दोष करि तिरष्कृत भूमिमें समस्त प्राप्त भयो, विघ्नकर्म नै दूरि करो, इहां आवो ॥ ३२३ ॥ आयात वास्तुविधिषूद्भट संनिवेशा योग्यांशभागपरिपुष्टवपुः प्रदेशाः । अस्मिन् मखे रुचिरसुस्थितभूषणांके सुस्था यथार्हविधिना जिनभक्तिभाजः ॥ ३२४ ॥ अरु - भो वास्तुकुमार जातिके देवहो ! तुम, अपना योग्य अंश विभाग करि पुष्ट देह संयुक्त इस यज्ञ प्रयुक्त सुन्दर सुस्थित भूषणनि करि 'कित विधानमें जिनेंद्रकी भक्तिपूर्वक आवो, तिष्ठो, योग्य स्थानमें सन्निवेश करो ॥ ३२४ ॥ श्रायात निमलनभः कृतसंनिवेशा मेघासुराः प्रमदभारनमच्छिरस्काः । अस्मिन्मखे विकृतविक्रयया नितांते सुस्था भवंतु जिनभक्तिमुदाहरंतु ॥ ३२५ ॥ अरु - भो मेघकुमार जातिके देवहो ! निर्मल आकाशका सन्निवेशके धरनहारे तुम, इस जिनयज्ञ- विधानमें विक्रिया करि अरु आनंदभार करि मस्तक धारि जिनेंद्रकी भक्तिमें अत्यंत सावधान होय तिष्ठो ॥ ३२५ ॥ आयात पावकसुराः सुरराजपूज्यसंस्थापनाविधिषु संस्कृतविक्रियार्हाः । स्थाने यथोचितकृते परिवद्धकक्षाः संतु श्रियं लभत पुण्यसमाजभाजां ॥ ३२६ ॥ बहुरि - भो अग्निकुमार जातिके देवहो ! जे इंद्रनि करि पूज्य श्रीजिनेंद्रदेव की सम्यक् प्रतिष्ठा विधानमें तुम आवो, अरु अपनी संस्काररूप विक्रियाके योग्य हो अर अपना योग्य स्थानमें कठिबद्ध होहु. अर इस पुण्यका समाजकू भजनेवारेन की शोभा तथा लक्ष्मी जो है ताकू' प्राप्त होहु ॥ ३२६ ॥ नागाः समाविशतभूतलसंनिवेशाः स्वां भक्तिमुल्लसितगावतया प्रकाश्य । Donal For Private & Personal Use Only पाई ܐܘܐ library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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