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________________ RECECRECIS २ E SECRECORRECASUALCOME आशीविषादिकृतविघ्नविनाशहेतोः स्वस्था भवंतु निजयोग्यमहासनेषु ।। ३२७ ॥ बहुरि-भो नागकुमार-जातिके देवहो! तुप इहां समावेश करो। तुप पृथ्वीतलमें रहनेवारे हो, सो अपनी भक्तिनै प्रसन्न शरीर विक्रिया | | करि प्रकाशित करि आशी-विव (स) आदि कृत विनका विनाशके अर्थि अपना योग्य प्रासनमें स्वस्थ होइ तिष्ठो ॥३२७॥ इति जिनभक्तितत्परवास्तुकुमारयथायोग्यस्थाननिवेशनाथ पुष्पांजलिं क्षिपेत् मंडपोपरि।। ऐसें जिनभक्तिमें तत्पर वास्तुकुमारदेवनायथायोग्य स्थानका सन्निवेश निमित्त वेदोमंडल ऊपरि पुष्पांजलि क्षेपणी॥ अब च्यारू दिशा नियोगवारे चोबदारके कार्यमें सावधान हैं सो ऐसें जानना, पुरुहूतदिशिस्थितिमेहि करोद्धृतकांचनदंडगखंडरुचे । विधिना कुमुदेश्वरसव्यशये धृतपंकजशंकितकंकणके ॥३२८ ॥ हे कुमुदेश्वर ! शंकायुक्त अर्थात् निःशब्द है कंकण जामें ऐसा वाम हस्तमें धारण किया है कमल पुष्प जानै अरु दक्षिण इस्तय विधि करि सुवर्णका दंड करि गमन करनेवारे अरु खंडरुचिवारे तुप इहां पुर्वदिशामें स्थिति करो ॥३२॥ वामनाशुयमदिग्विभागतः स्थानमेहि जिनयज्ञकर्मणि । भक्तिभारकृतदुष्टनिग्रहः पूतशासनकृतामबंध्यकः ॥ ३२६ ॥ बहुरि-हे वायन नामधारक ! तुम जिनराजका यज्ञ-विधानमें दक्षिणदिशाका विभागमें स्थान प्राप्त होवो। अरु भक्ति करि दुष्टनका निग्रह कारक अरु जिनाज्ञा धारण करनेवारेकू सफलताका देनहारा होउ ॥ ३२६॥ पश्चिमासु विततासु हरित्सु भूरिभक्तिभरभूकृतपीठाः । अंजनस्वहितकाम्ययाऽध्वरे तिष्ठ विघ्नविलयं प्रणिरिधेहि ॥ ३३०॥ बहुरि-हे प्रचुरभक्तिका भार करि पृथ्वीकू किया है पीठस्थान जानें ऐसा अंजन नामक द्वारपाल ! यज्ञकी पश्चिम विस्तृत दिशामें अपना |हितकी कामना सिद्धि करि या जिनेंद्रका यज्ञमें तिष्ठो, अरु दुष्ट-कृत विघ्नका नाशकू करो॥३३०॥ Jain Educatio n al For Private & Personal Use Only Di b rary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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