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पुष्पदंतभवनासुरमध्ये सत्कृतोऽसि यत इत्थमवोचम् ।
उत्तरत्र मणिदंडकराग्रस्तिष्ठ विघ्नविनिवृत्तिविधायी॥ ३३१ ॥ बहुरि-हे पुष्पदंत यक्ष ! तुम भवनकुमार-जातिके देवनमें सत्कार पाया है, यात में ऐसे कहूं हूँ कि उत्तर दिशामें विघ्नको, नित्तिका विधान करनेवारा होय मणिदंड है करके अग्रभागमें जाके ऐसा तिष्ठो ॥ ३३१॥
इत्युक्त्वा चतुर्दितु द्वारेषु पुष्पाक्षतक्षेपं क्रियात् ॥ ऐसें कहि च्यारों दिशाके द्वारमें पुष्प अक्षतनका अंजलि क्षेपै ।
करकृतकुसुमानामंजलिं संवितीर्य धनदमणिसुरत्नानीशपूजार्थसार्थे ।
विकिर विकिर शीघं भक्तिमुद्भावयित्वा निगदतु परमांके मंडपोर्ध्वावकाशे ॥ ३३२ ॥ बहुरि-हे कुवेर ! तुम हस्तमें पुष्पनिको जुलिकूवितरण करि जिनेंद्रकी पूजाका साहित्यम मणि अरु रत्ननिन शीघ्र भगवानको है| भक्तिकूप्रगट करि वर्षावो वर्षावो, ऐस मंडपका उपरिभागमें पुष्पांजलि करि यजनकर्ता कहै ॥ ३३२॥
इत्युक्त्वा मंडपोपरि सर्ववर्णा चितपुष्पाक्षताः क्षेप्याः। ऐसें कहि मंडपके उपरि सर्वप्रकार रंग-संयुक्त पुष्प अक्षतनकूपना । ऐसे मंडपको प्रतिष्ठाका विधान जानना।
इति मंडपमतिष्ठाविधान।
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अथ मंडले चूर्णनिक्षेपविधिः । अब मंडलमैं चूर्णका स्थापनकी विधि कहिये हैं,
मुक्ताचूर्णमुदीर्णपूर्णकनकस्थाल्यर्पित शुद्धिभृद्
व्यस्रोद्भासितपेषणीषु युवती श्लाघ्याभिरुत्पेषितम् ।
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