SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भतिष्ठा पार १८२ DIREATMASAOU ओं ही अजितवीर्यजिनायाघम् । एवं पंचमकोष्ठपूजितजिनाः सर्वे विदेहोद्भवा नित्यं ये स्थितिमादधुः प्रतिपतत्तन्नाममंत्रोत्तमाः। कस्मिंश्चित्समयेऽभ्रषट्विधुमितं पूर्ण जिनानां मतं ते कुर्वतु शिवात्मलाभमनिशं पूर्णाघसंमानिताः ॥ ५६५ ॥ असे पंचम वलयमें पूजित जिन हैं ते सर्व हो विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न हैं अह प्राप्त हुआ नाम सोही उत्तम मंत्ररूप पर कोई समयके विष अन कहिये शून्य, षट् कहिये छ अर विधु कहिये एक ऐसे १६० एक सौ साठि होय हैं अर नियकालकी अपेक्षा वीस हो स्थिति धारण करै हैं ऐसे ते शिवस्वरूप. निरंतर पूर्णार्घकरि मान्या हुवा करो॥५६५ ॥ ओं ह्रीं विवप्रतिष्ठाध्वरोधापने मुख्यपूजाहपंचमवलयोन्मुद्रितविदेहक्षेत्र सुषष्टिसहितकशतजिनेशसंयुक्तनित्यविहरमाण विंशतिजिनेभ्यः पूर्णा ॥ ओं ही विवप्रतिष्ठाका उत्सव में पंचम वलयमें स्थापित विदेह क्षेत्रमें अवतार लेनेवाले जिनेंद्रनिको स्मरणकरि पूर्णाघ देना। SECORDINAROPERAGERAKASAMER D अथ षष्ठवलयस्थापिताचार्यगुणपूजा। अब पष्ठ क्लयमें स्थापित प्राचार्य परमेष्ठीका छह त्रिंशत् गुण अपेक्षा अर्घ छत्तीस हैं सो ही कहिये है मोहात्ययादाप्तदृशोः स पंचविंशातिचारत्यजनादवाप्तां । सम्यक्त्वशुद्धिं प्रतिरक्षतोऽर्चे प्राचार्यवर्यान् निजभावशुद्धान् ॥५६६ ॥ बहुरि मोहका नाशते प्राप्त भया सम्यग्दर्शनके पचीस अतीचारका त्यागते प्राप्त भई सम्पावकी शुदि ताहि रक्षा करनारे पर नि:- II प्रभावकरि शुद्ध असे प्राचार्य परमेष्ठीनि मैं पूजू हूँ॥५६६॥ HARSANELORD Jain Education Bonal For Private & Personal Use Only w helibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy