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भतिष्ठा
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ओं ही अजितवीर्यजिनायाघम् । एवं पंचमकोष्ठपूजितजिनाः सर्वे विदेहोद्भवा
नित्यं ये स्थितिमादधुः प्रतिपतत्तन्नाममंत्रोत्तमाः। कस्मिंश्चित्समयेऽभ्रषट्विधुमितं पूर्ण जिनानां मतं
ते कुर्वतु शिवात्मलाभमनिशं पूर्णाघसंमानिताः ॥ ५६५ ॥ असे पंचम वलयमें पूजित जिन हैं ते सर्व हो विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न हैं अह प्राप्त हुआ नाम सोही उत्तम मंत्ररूप पर कोई समयके विष अन कहिये शून्य, षट् कहिये छ अर विधु कहिये एक ऐसे १६० एक सौ साठि होय हैं अर नियकालकी अपेक्षा वीस हो स्थिति धारण करै हैं ऐसे ते शिवस्वरूप. निरंतर पूर्णार्घकरि मान्या हुवा करो॥५६५ ॥ ओं ह्रीं विवप्रतिष्ठाध्वरोधापने मुख्यपूजाहपंचमवलयोन्मुद्रितविदेहक्षेत्र सुषष्टिसहितकशतजिनेशसंयुक्तनित्यविहरमाण
विंशतिजिनेभ्यः पूर्णा ॥ ओं ही विवप्रतिष्ठाका उत्सव में पंचम वलयमें स्थापित विदेह क्षेत्रमें अवतार लेनेवाले जिनेंद्रनिको स्मरणकरि पूर्णाघ देना।
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अथ षष्ठवलयस्थापिताचार्यगुणपूजा। अब पष्ठ क्लयमें स्थापित प्राचार्य परमेष्ठीका छह त्रिंशत् गुण अपेक्षा अर्घ छत्तीस हैं सो ही कहिये है
मोहात्ययादाप्तदृशोः स पंचविंशातिचारत्यजनादवाप्तां ।
सम्यक्त्वशुद्धिं प्रतिरक्षतोऽर्चे प्राचार्यवर्यान् निजभावशुद्धान् ॥५६६ ॥ बहुरि मोहका नाशते प्राप्त भया सम्यग्दर्शनके पचीस अतीचारका त्यागते प्राप्त भई सम्पावकी शुदि ताहि रक्षा करनारे पर नि:- II प्रभावकरि शुद्ध असे प्राचार्य परमेष्ठीनि मैं पूजू हूँ॥५६६॥
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