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________________ D प्रतिष्ठा १८३ ओं ही दर्शनाचारसयुक्ताचार्य परमेष्टिभ्योऽर्घ । विपर्ययादिप्रहृतेः पदार्थज्ञानं समासाद्य परात्मनिष्ठं । दृढ़प्रतीतिं दधतो मुनींद्रानचे स्पृहाध्वंसनपूर्णहर्षान् ॥ ५६७॥ संशय विपर्यय अनध्यवसायका नाशतें आत्म अर परपदार्थमें स्थित असा पदार्थज्ञान. माप्त होय प्राप्तागप पदार्थनिको दृढ़ प्रतोतिBI ने धारते अर वांछाका अभावकरि पूर्णमुक्त असा आचार्य मुनींद्रने मैं पूजू हूँ॥५६७ ॥ ओं ही ज्ञानाचारसयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽघ । आत्मस्वभावे स्थितिमादधानांश्चारित्रचारून द्विधा चरित्रादचलत्वमाप्तानार्यान् यजे सद्गुणरत्नभूषान् ॥ ५६८॥ अर प्रात्मीक स्वभावमें तिष्ठनवारे अर चारित्रकरि सुदर महाव्रतके धारी पर दोय प्रकार चारित्र अवल अर सुंदर गुणके भूषण का असे आचार्यनै मैं पूजू हूं ॥५६८ ॥ ओं हो चारित्राचारसयुक्ताचार्यपरमेष्टिभ्योऽर्घम् । वाह्यांतरद्वैधतपोऽभियुक्तान् सुदर्शनाद्रिं हसतोऽचलत्वात् । गाढावरोहात्मसुखस्वभावान् यजामि भक्त्या मुनिसंघपूज्यान् ॥ ५६९ । अर वाब अर अभ्यंतर द्विपकार तपका योगमैं सुमेरु पर्वतनै अचलपणामै हराते अर अवगाढ सम्यक्त्वरूप सुखस्वभावका धारी असे मुनिसमूहमें पूज्य आचार्य परमेष्ठीकू मैं पूजू हूँ॥५६॥ ओं ही तपआचारसयुक्ताचायपरमेष्टिभ्योऽय। स्वात्मानुभावोद्भटवीर्यशक्तिदृढाभियोगावनतः प्रशक्तान् । परीषहापीडनदुष्टदोषागतौ स्ववीर्यप्रवणान् यजेऽहं ॥ ५७० ॥ ESHBANDIG - E - NGRAPEless Jain Education international For Private & Personal Use Only elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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