SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा १८१ श्रीवीरसेनाप्रभवं प्रदुष्टकर्मारिसेनाकरिणे मृगेंद्रः। यः पुंडरीशं जिनवीरसेनं सद्भुमिपालात्मजमर्चयामि ॥ ५६१ ॥ श्रीमती वीरसेनाते उत्पन्न अरु दुष्ट कमरूप वैरीकी सेनारूप हाथीवास्तै मृगेंद्र समान अरु पुंडरीक नगरीको स्वामी अरु समोचीन भूमिपाल राजाको पुत्र असा वीरसेन जिनेंद्रनै पूजू हूँ ॥५६॥ _ओं ही वीरसेनजिनायाघम् । यो देवराजक्षितिपालवंशदिवामणिः पूर्विजयेश्वरोऽभूत् । उमाप्रसूनो व्यवहारयुक्त्या श्रीमन्महाभद्र उदय॑तेऽसौ ॥ ५६२॥ जो देवराज राजाका वंशमें सूर्य समान अरु विजया नगरको स्वामी अरु उन नाय माताले उत्सन व्यबहार नरकरि अप्ता यो श्रीमान् महाभद्र मैं करि पूजिये है ॥ ५६२॥ ___ों ह्रीं महाभद्रजिनायाघम् । गंगाखनिस्फारमणिं सुसीमापुरीश्वरं वै स्तवभूतिपुत्र । स्वस्तिप्रदं देवयशोजिनेंद्रमर्चामि सत्स्वस्तिकलांछनीयं ॥ ५६३ ॥ गंगानाम मातारूप खानिको स्फुरायमान रत्नरूप अरु सुप्सीपा नागीको ई वा ग्रह स्तवभूति राजाको पुत्र अरु कल्याण देनेवारो अरू समीचीन साथियाको चिढवारो असा देवयशा नामक जिनेंद्रने मैं हूँ ॥५६३ ।। ओं ही देवयशोजिनायाघम् । कनकभूपतितोकमकोपकं कृततपश्चरणार्दितमोहकं । अजितवीर्यजिनं सरसीरुहविशदचिन्हमहं परिपूजये ॥ ५६४॥ कनक राजाका पुत्र अरु नहीं है कोप जाकै अरु तपश्चरण करि पोडित किया है मोह जानै अरु कपत्रका है निर्मल चिढ़ जाकै असा अजितवीर्य जिनेंद्रने मैं पूजू हूँ ॥५६४ ॥ - ५ - Jain Educatio For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy