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________________ भातष्ठा ७२ 4-%-to-de- % A गयणमिव णिरुवलेवा अक्खोहा सायरुव्व मुनिवसहा । एरिसगुणणिलयाणं पायं पणमामि सुद्धमणो ॥ ६ ॥ जो आचार्य महाराज समस्त शास्त्रोंके पारगामी हैं, बाल वृद्ध रोगो आदि समस्त मुनियोंसे सहित उनके अपराधों को जानकर पुनः चारित्र || में दृढ़ करने वाले हैं, व्रत समिति गुप्तियोंसे मडित हैं, उपाध्यायके गुणोंसे भूषित हैं, सावुके गुणोंसे पंडित हैं, जो क्षमा धारण करने में पृथ्वीके समान हैं, प्रसन्नतामें निर्मल जलसे पूरित सरोवरके तुल्य हैं, कर्मरूपो ईधनको जलानेमें अग्निके सपान हे वायुके सपान निःसंग हैं, आकाशके समान निर्लप-परिग्रहरहित हैं, समुद्र के समान अक्षोभ्य गंभोर हैं, उन आचार्य महाराजके चरण कपलोंको शुद्धापनसे नमस्कार करता हूँ॥२-६॥ संसारकाणणे पुण बंभममाणेहिं भव्वजीवहिं। णिव्वाणस्स दु मग्गो लदो तुम्हें पसाएण ॥७॥ हे प्राचार्य ! इस संसाररूपी भयानक जंगलमें भटकते हुये भव्यजीवोंने आपके प्रसादसे हो मोतका मार्ग प्राप्त किया है॥७॥ अविसुद्धलेसरहिया विसुद्धलेसेहिं परिणदा सुद्धा । रुद्दड्ढे पुणवत्ता धम्मे सुक्के य संजुत्ता ॥८॥ हे प्राचार्य ! आप अविशुद्ध लेश्याओंसे रहित हैं, विशुद्ध लेश्यानोंसे भूषित हैं, रौद्र और प्रार्तध्यानसे मुक्त हैं, और धर्ना तथा शक्ल ध्यानसे संयुक्त हैं॥८॥ श्रोग्गहईहावायाधारणगुणसंपएहिं संजुत्ता । सुत्तत्थभावणाए भावियमाणेहिं बंदामि ॥ ६ ॥ जो आचार्य महाराज प्रवग्रह, ईहा, आवाय ओर धारणारूप गुणोंसे संयुक्त हैं, अतार्यको भावनासे भावित हैं उन्हें म नमस्कारका करता GAURRENIORG55A 4 %AA-%A-04 m Jain Educati elibrary.org For Private & Personal Use Only o nal
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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