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________________ प्रतिष्ठा १७२ - UKHA निरुक्तलक्ष्म्यै जयकीर्तिदेवं स्तवस्रजा नित्यमुपाचरामि ॥५३०॥ पापाश्रवनका दलनते, यशका प्रगट होनातें, जयतें कीर्तिका समागमन करि निरुक्ति और लक्षण करि जयदेवकीति नाम प्राप्त भया ता जिनेंद्रने निस स्तुतिपालाकरि सेवा करूंहूँ॥५३०॥ ओं ह्रीं जयकीर्तिदेवायाम् । कैवल्यभानातिशये समग्रा बुद्धिप्रवृत्तिर्यत उत्तमार्था । तत्पूर्णबुद्धेश्चरणौ पवित्रावयेन यायज्मि भवप्रणष्टयै ॥ ५३१॥ __ जिस समय केवलज्ञान हुआ उस अतिशयमें समग्र बुद्धिको प्रवृत्ति उत्तम प्रयोजनवारी होय है तातें पूणबुद्धि नामक जिनेंद्रका पवित्र चरणनिकू अर्घपाद्य करि संसारका नाश होने कूपूजू हूँ ॥५३१ ॥ ___ओं ह्रीं पूर्ण बुद्दिजिनायाघम् । क्रोधादयश्चात्मसपत्नभावं स्वधर्मनाशान्न जहत्युदीर्ण । तेषां हतिर्येन कृता स्वशक्तस्तं निःकषायं प्रयजामि नित्यं ॥ ५३२॥ येह क्रोधादिकपाय आत्मीक धर्मका नाशते वैरीपणाने उत्कट नहीं छोडे है अरु याने अपनी शक्तित तिन कषायनिका हनन किया सो निःकषाय नामक जिनने मैं पूजू हूं ॥५२॥ ओं ही निकषायजिनायार्यम् । मलव्यपायान्मननात्मलाभाद् यथार्थशब्दं विमलप्रभेति । लब्धं कृतौ स्वीयविशुद्धिकामाः संपूजयामस्तमनय॑जातं ॥ ५३३॥ की रूप मलका नाशत अरु मननकरि आत्मविशुद्धिका लाभते यथार्थ विमलप्रभ नाय लब्ध हुवा ताकू इस यज्ञमें अपनी विशुद्धताके वांछक हम हे ते अनय जन्म ऐसा विमलप्रभने पूजे हैं॥५३३॥ विस्%AALAKARSABRECE RKAH-RENESHRES CREARRIES Thelibrary.org Jain Educatie anal For Private & Personal Use Only
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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