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________________ अतिष्ठा पाट %AE% %A4 १७१ %E0 अरु आत्माका प्रभावका उदयत निरंतर लब्धोदयपणात उदयप्रभ नाम पायो याहीत सार्थकपणात ताको पूजनकरि मैं पुण्यभागी हो ॥५२६॥ ओं ही उदयप्रभजिनायाघम्। प्रभा मनीषा प्रकृतिर्मतिप्रिभृत्युदीर्णेकफलेति मत्वा।। जाता प्रभादेव इति प्रशस्तिस्ततोऽर्चनातोहमपि प्रयामि ॥ ५७॥ इहां प्रभा मनीषा प्रकृति मति अरु ज्ञा आदि शब्द एक उत्कृष्ट फल अर्थमें हैं। ऐसा मानि प्रभादेव ऐसी प्रशस्त ख्याति हुई जातें मैं भी | पूजन विधिकार प्राप्त हूँ॥५२७॥ ___ओं ही प्रभादेवजिनायाघम्। उदंकदेव त्वयि भक्तिभोग्या घटी घटी सा न तदुच्यते हा। त्वामेव लब्ध्वा जननं प्रयातं वरं यतस्त्वामहं महामि ॥ ५२८॥ दे उदंकदेव ! तिहारेवि भक्तिकरि भोगवे योग्य घटी है कहिये घडी है सो घटी नहीं अर्थात् निरर्थक नहीं, हा बडा खेद है कि कहिये || है अरु तोने प्राप्त होय जो जन्म पायो सो वर है यात मैं तो पूजित करू हूँ॥५२८॥ ओं ह्रीं उदंकदेवजिनाय अर्घम् । सुरासुरस्वांतगतभ्रमैकविध्वंसने प्रश्नकृतोपपत्त्या। कीर्ति ययौ प्रोष्ठिलमुख्यनामस्तवैर्निरुक्तोऽहमुदंचयामि ॥ ५२६ ॥ अरु प्रश्नकी उपपत्ति कहिये प्राप्ति करि सुरविद्याधरनिका मनमें प्राप्त भया भ्रमका विध्वंसमें कीर्तिने प्राप्त होत भयो अरु दूसरो पोष्ठिल नाम पायो आदि नामकी स्तुति करि निरुक्त कियो मैं पूजू हूँ॥५२६॥ ओं ही प्रश्नकीर्तिजिनायार्घम् । पापाश्रवाणां दलनाद् यशोभिर्व्यक्तंर्जयात् कीर्तिसमागमेन । AURASIRECARESHEESENSE E 4-%C - Jain Educational For Private & Personal Use Only library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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