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________________ प्रतिष्ठा २३६।। PROCEROSECURRECORAKHAND प्रायं मोचितवान् लिलोकमाहितं राज्यं समासादितुं । कृत्वोग्रे तपसि स्थितोऽशुभविकृत्युत्पाटयन्मूलत श्चारित्रैश्यमगात्प्रभुर्गुणनिधिः स त्वं विभास्येव नः ॥ ७२६॥ अर जो कछु हेतुमात्र वराग्यका प्राप्ति होने इस भगवान् चक्रवर्ती आदि राज्य सुखन तृण समान जानि अर तीन लोकपूजित सिदत्व राज्यन प्राप्त होवे छोडतो भयो सो उग्र तपमै आत्मनै करि स्थित हुवो अशुभ विक्रिया कर्मनै मूलसें उत्पाटन करतो चारित्र संपूर्णका खामीपणाने प्राप्त होतो भयो सो गुणांको निधि तू प्रभू हमारे मध्य शोभायमान हो ॥ ७२६॥ कैवल्यावगमाच्चराचरजगवस्तुस्वरूपं करे ___ कृत्वा श्रीसमवस्थितौ नरपशुस्वर्गिव बोधयन् । धर्माभो भवदुःखतप्तभविनो दत्वा सुखास्वादनं नीताः सोऽस्त्वपुनर्भवाय भवतां कल्याणकल्पद्रुमः॥७२.।" अर केवल ज्ञानका प्राप्ति होनेते चर अचर जगत् पदार्थनिका स्वरूपने हाथमें करि श्रीमान् समवसरनमैं स्थिति करि मनुष्य और तियच और देव इनका समूहनै बोधित करतो धर्मरूप जलदान संसार दुःख करि तप्त संसारी जनोंकू देय सुखको आस्वादने प्राप्त कियो सो स्वामी संसार आवागमनका नहीं होनेके वास्ते कल्याणका कल्पवृक्ष होउ ॥७२७॥ आयुर्नामसुगोलशातनविधीनुक्त्वाल्पसर्वप्रक-(?) त्युन्माथं सुविधाय चैकसमये लोकांतमाप्तः स्वभूः । किंचिन्न्यूननिजात्मदेशकलनः सिद्धः परंज्ञायक श्चिद्ज्ञानांबकवीर्यताप्तिविमलः स त्वं महान् पूज्यते ॥ २८ ॥ BREGISROCESSPECIALMOREKHA Jain Educat i onal For Private & Personal Use Only Ninelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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