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________________ प्रतिष्ठा FREERUPERICASSOCIO गोतमं च सुधर्म च जंबूस्वामिनमूर्ध्वगम् ॥ ३१॥ तथा वेही केवलज्ञानी हुवे-गौतम १, सुधर्माचार्य १, जम्बूस्वामी १ ऐसे वीरस्वायीके पीछे तीन उर्ध्वगतिके गामी जे हैं तिनने अर्घ देना ॥३१०॥ ऐसे सकेवलीत्रयके अर्थि अघ देना-। ओ हीं अंसकेवलित्रयायाघम् । श्रुतकेवलिनोऽन्यांश्च विष्णुनंद्यपराजितान् । गोवर्धनं भद्रबाहुं दशपूर्वधरं यजे ॥ ३११ ॥ अन्य जे श्र तकेवली-विष्णुनन्दी १, अपराजित १, गोवर्दन १, भद्रबाहु १, ये दशपूर्वका धारीनें पूजू ह॥३१॥ ऐसें श्रु तकेवलीनकूअर्घ देना ओं ह्रीं श्रुतकेवलिनोऽर्घम् । विशाखप्रोष्ठिलनक्षत्र जयनागपुरस्सरान् । सिद्धार्थधतिषणाहौ विजयं बुद्धिबलं तथा ॥ ३१२ ॥ गंगदेवं धर्मसेनमेकादश तु सुश्रुतान् । नक्षत्रं जयपालाख्यं पांडुं च ध्रुवसेनकम् ॥३१३॥ कंसाचार्य पुरोंगीयज्ञातारं प्रयजेऽन्वहं । अरु विशाखदत्त १, पौष्ठिल १, नक्षत्र, जय १, नागर, सिद्धार्थ १, धृतिषेण१, विजय१, बुद्धिवल १, गंगदेव १, धर्य सेन १, ऐस ग्यारा सुन्दर श्रु तपाठी जे हैं तिनने, तथा नक्षत्र १, जयपाल १, पांडु १, ध्रुवसेन १, कंसाचार्य १, ऐसें प्रथम पूर्वका जाननेवारानें निरंतर पूजू हूँ॥३१२-३१३॥ ऐस कितनाक अंगपाठीननै अर्घ देना ओं ही कतिचिदंगधारिभ्योऽधम् । 99%ECEBRURSS LOCESSAY Jain Educational For Private & Personal Use Only helibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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