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________________ प्रतिष्ठा CAS २५१ RANSPLIEREKA PRESIDOES अर जाकी अंगकी कांतिकरि कोटि सूर्यको प्रभा आच्छादन कियो अरु लावण्य कहिये रूप संपदाकरि कोटि कामदेवकथा धिक्कार || प्राप्त भई तथा वीय पराक्रमकरि तीन लोकके प्राणीमात्रको बल धिक्कार प्राप्त हुवो पर सुखभूमिकरि कोटि इंद्रनिकी तुलना धिक्कार प्राप्त भई ऐसा श्री जगत्प्रभूका रूपने वारंवार देखतो इंद्रक कहा कहा कृत्य नहीं शोभायमान हवो ॥७२॥ प्रह्वन्मौलिरसौ प्रमत्तहृदयानंदोद्गमेन स्तवं तत्रोद्भासिगुणौघकीर्तनविधावानंत्यभावं वहन् । स्तोकीकृत्य सहस्रनामखचितं स्पष्टीचकारामरा धीशस्तेषु मनाग्मया कतिचिदाख्याः स्तूयते पावनाः ॥ ७७३ ॥ अर यो नम्र मुकुटयुक्त इंद्र है सो प्रमोदरूप हृदयका आनंदका होवात आप ही उस भगवानमें प्रगट भये गुण समूहके कीतनमें अनंत भावने धारतो संतो अनंत नामनिने सयेटि अर हजार नामकरि रचित स्तोत्रने प्रगट करतो भयो तिस अपराधीशका किया नामनिमेंसे मैं | किंचिन्मात्र नाम करि पवित्र स्तवन करिये है ॥ ७७३॥ त्वं देव ! वीतरागोऽसि नार्थः स्तवननिंदने। तथापि भक्तिवशगः स्तवीमि कतिचित्पदैः॥ ७७४ ॥ | हे वीतरागदेव ! त वीतराग है, तेरे स्तुति पर निंदामें प्रयोजन कछू भी नहीं है। तथापि मैं भक्तिके अधीन हवो सतो कितनेक पदनिकरि स्तुति करूंहूँ॥७७४ ॥ मंगलं शरणं लोकोत्तमोऽर्हन् जिनराइ जिनः । सिद्ध आचार्यसंपूज्यः साधुः साधुपितामहः ॥ ७७५ ॥ हे भगवान ! तू मंगल है, पर शरणरूप है, अर लोकमें उत्तम है, अरहंत है, जिनराज है, जिन है, सिद्ध है, प्राचार्यनिकरि पूज्य है, साधु है, अर साधुनिका पितामह है ॥७७५॥ COLLARKIRCLA-AMAamaka For Private & Personal Use Only Jain Education Intematonal malnelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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