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________________ प्रतिष्ठा २२१ RSARKESRCADREAM CARROREGARH अरु जे मुक्तावली हारावली सिंहनिःक्रोडित आदि तपके धारीक निका नाशके अर्थि यात उत्साह स्वभाव होय ह अरु ग्राम वनी आदिमें भी भोजन नहीं ग्रहण करें ते कर्मनिका समूहरूप तृणमैं अग्निचय सपान मुनींद्र पेरे प्रशांतिभावके अर्थि होहु ॥६ ॥ ओं ह्रीं महातपऋद्धिप्राप्त भ्योऽयम्। कासज्वरादिविविधोगूरुजादिसत्त्वेष्वप्यच्युतानशनकायदमान श्मशाने । भीमादिगह्वरदरीतटिनीषु दुष्टसंक्लुप्तबाधनसहानहमर्चयामि ॥ ६८२ ॥ अरु जे काश ज्वर श्वास आदि नाना प्रकार रोग होत संते भी नहीं चुत किया उपवास और शरीरको दपन जिननै अरु स्मज्ञानमें तथा भयानक पवंतनिकी गुफा कंदरा नदीनिमें दुष्ट प्राणोकृत परीषहनिनै सहनेवारे मुनींद्रनने मैं पूजू हूँ॥६२॥ ओं ह्रीं घोरतपऋद्धिमाप्तभ्योऽयम् । पूर्वोदितासु विधियोगपरंपरासु स्फारीकृतोत्तरगुणेषु विकाशवत्सु । येषां पराक्रमहतिर्न भवेत्तमर्च पादस्थलीमिह सुघोरपराकमाणां ॥ ६८३॥ अरु पूर्व कहे सर्वयोग समूहनै होतां विशद किया है उत्तर गुणविकाश जिनम तिनकै कदाचित् भी पराक्रमको हानि नहीं होय विन घोर पराक्रमधारी मुनींद्रनिकी पादस्थलीनै पूजू हूँ॥६८३॥ ' ओं ही घोरपराक्रमगुणऋद्धिमाप्त भ्योऽयम् । दुःस्वप्नदुर्गतिसुदुर्मतिदौर्मनस्त्वमुख्याः क्रिया व्रतविघातकृते प्रशस्ताः । तासां तपोविलसनेन समूलकाषंघातोऽस्ति ते सुरसमर्चितशीलपूज्याः ॥ ६८४॥ अरु जिनकै दुष्ट स्वप्न अरु दुर्गति अरु बुद्धि अरु पनका संकल्पको दुष्टपणो आदि व्रतका नाशमें प्रशस्त असी जे क्रिया हैं तिनको तपका प्रकाशकरि निर्मूल हुवा ते देवनिकरि पूजित शीलकरि पूज्य हैं।६८४॥ ओं ही घोरब्रह्मचर्यगुणऋद्धिमाप्तभ्योऽर्षम् । AAAAAAAAAAORE - Jain Education a l For Private & Personal Use Only library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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