SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ BUR अविष्ठा १५६ ARRELAABHANSARKARICKETER प्रों ही परमेश्वरजिनायाघम्। यज्ज्ञानरत्नाकरमध्यवर्ती जगत्त्रयं विंदुसमं विभाति। तं ज्ञानसाम्राज्यपतिं जिनेंद्रं ज्ञानेश्वरं संप्रति पूजयामि ॥ ९८६॥ पर जाका ज्ञानरूप समुद्रमैं तोन जगत बिंदु समान शोभित होय है ऐसा ज्ञानरूप साम्राज्यको लक्ष्मीकापति ज्ञानेश्वर नापक जिने । बर्तमानमैं पूजू हूँ॥४८६॥ ओं ही ज्ञानेश्वरजिनाय अर्घम् । तपोवृहद्भानुसमृढतापकृतात्मनैर्मल्यमनिर्मलानाम् । अस्मादृशां तद्गुणमाददानं संपूजयामो विमलेश्वरं तं ॥४८॥ तपरूपी अग्निका वधा हुवा ताप करि कियो है आत्पान निपल जाने पर मो सारिखे अनिर्मलता धारण करनेवारेननमल्य गुणन देनेवारो, ऐसो विपलेश्वर नापक जिनेंद्र जो हैं ताहि हम पूजे हैं॥४८७॥ ___ओं ही विमलेश्वरजिनाय अघम् । यशः प्रसार सति यस्य विश्वं सुधामयं चंद्रकलावदातं । अनेकरूपं विकृतैकरूपं जातं समवेहि यशोधरेशं ॥ ५८८ ॥ अरू जाका यशका फैलावमैं समस्त विश्व अमृतपय अरु चंद्रमा को कत्रा समान निपल अरु अनेकरूप भी सुऊतरूप होतो भयो, वा यशोधर देवनै पूजू हूँ॥४८॥ ____ओं ही यशोधरजिनेशाय अर्घम् । क्रोधस्मराशातविघातनाय संजाततीवक्रुधिवात्मनाम । प्राप्तं तु कृष्णेति नु शुद्धियोगात् तं कृष्णमर्चे शुचिताप्रपन्न ॥ ५८९॥ PUSSIANGRESSGUAGRIMAR १५६ Jan Educa For Private & Personal Use Only O nelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy