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________________ HEREUREAUCURESHANKARISRO स्वयं शिवः शाश्वतसौख्यदायि स्वायंप्रभुः स्वात्मगुणप्रपन्नः। तस्मात्तदर्थप्रतिपन्नकामस्त्वामर्चये प्रांजलिना नतोऽस्मि ॥ ४८२॥ अरु आप स्वयं शिव-रूप निरंतर सुखका देनेवारा हो, आत्मीक गुणका प्रपलवान् अाप प्रभु हो, तातै ता अर्थको प्राप्तिका वांछक मैं अंजुलो जोड़ि नमस्कार करूअर तो पूजूंह ॥४२॥ __ों ही शिवजिनाय अर्घम् । सत्कुंदमल्लीजलजादिपुष्पै रभ्यर्च्यमानः श्रियमादधाति । नाम्नाऽप्यसौ तादृश एव यस्मात् पुष्पांजलिं त्वां प्रतिपूजयामि ॥ ४८३॥ अरु कुंदपालती कपल आदि पुष्पनि करि पूजित भया संता लक्ष्पोर्न देखें है अहनाप करि भी वैसा हो, यात हे देव पुष्पांजलि नायक ! तुपर्ने पूजू हूं ॥४८३॥ __ओं हो पुष्पांजलिजिनायाघम् । उत्साहयन् ज्ञानधनेश्वराणां शाम्याम्बुधिं संयमचंद्रकीर्तेः । उत्साहनाथो यजनोत्सवेऽस्मिन् संपूजितो मे स्वगुणं ददातु ॥ १८॥ अरु ज्ञानरूप धनके स्वामी जे हैं तिनके संयपरूप चंद्रपाकी कातित समभाव-रूप समुद्रक् उत्साह वधातो उत्साह नाय जिन! यजन5|| उत्सवमैं पूजित भयो अपना गुण देवो ॥४८४॥ ____ओं ह्रीं उत्साहजिनाय अघम्।। नमोऽस्तु नित्यं परमेश्वराय कृपा यदीयाक्षणसंनिधानात् । करोति चिंतामणिरीप्सितार्थमिवांचये तं परमेश्वराख्यं ॥ ४८५॥ अरु नित तुम परमेश्वरके अर्थि नपस्कार होउ जाको कृपा क्षणमात्र संनिधानते चिंतापणि वांछितन करता सपान कर है ऐसा परमेश्वर नाय जिनेंद्रनें पूजू हूं ॥४ ॥ RECENTREP १५८ Jain Educati nelibrary.org For Private & Personal Use Only Jional
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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