SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ EASEKISTRUCARECASHTREASEARCHESSAR संगीयते त्वं ह्यमलां विभर्षि यतोऽये त्वाममलप्रभाख्यं ॥१७॥ अरु प्रभा बुद्धि शक्ति ये अनेक नाम सध्यान लक्ष्मीका है, यात उत्तमार्थ पुरुषनित तू गान करिये है अरु निर्मल प्रभान पार है, यात अमलपम नापक तुम पूजू हूँ॥४७८॥ ओं ह्रीं अपलप्रभजिनायाघम् ।। अनेकसंसारगतं भ्रमेभ्य उद्धारकर्तेति बुधैरवादि । यतो मम भ्रांतिमपाकुरु त्वमुद्धारदेव प्रयजे भवंतं ॥१७॥ पंडित जनन ऐसा कहा है कि.तुम अनेक संसारका भ्रमतै उद्धार करनेवारा है, याते त मेरी भ्रांत दशा जो है ताहि दरि करि हे उद्धार जिन ! तोहि पूजू हूँ॥ ४७६॥ ओं ही उद्धारजिनाय अघम् ।। दुष्टाष्टकर्मेधनदाहकर्ता यतोऽग्निनामाभ्युदितं यथार्थम्।। ततो ममासाततृणव्रजेऽपि तिष्ठार्चये त्वां किमु पौनरुक्ते ॥१८॥ हे जिनेंद्र ! तुम दुष्ट अष्टकर्म-रूप काष्ठका दाह करनेवारे हो, यात सायक अग्नि नाप प्राप्त भया, ताते पेरा. असाता-रूप तृख समूहमैं भी तिष्ठ, अर्थात् अग्निरूप होय तिष्ठ। इस कारण तून पूजू हूँ, पुनरुक्त वचनन करि कहा ? ॥४८॥ ओं ही अग्निदेवजिनाय अघम् । ' प्राणेंद्रियद्वैधसुसंयमस्य दातारमुच्चैः कथयामि सार्व। मदत्तम जिन संग्रहाण सुसंयम स्वीयगुणं प्रदेहि ॥४८१ ॥ बहुरि हे साव ! प्राण-संयम अरु इंद्रिय-संयम ई प्रकार द्विविध संयमकू भले प्रकार देवो, यात उच्चवर करि मैं तुम प्रति कहह, बात मेरा दिया अर्थकू ग्रहण करि अरु अपना गुण संयपकूदेहि ॥४८॥ ओं हो संयपजिनायाघम् । RECTRESCO R PIS Jain Educati o nal For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy