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प्रतिष्ठा
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आश्रित भव्यनका मनकी विशुद्धिके अर्थि किया है अवतरण जानें, मुनिन करि गायी है कीर्ति जाकी ऐसा शुद्धाभदेवनै चरू अर दीपक इन करि यज्ञमैं नमस्कार-पूर्वक पूजू हूँ॥४७४॥
ओं ह्रीं शुद्धाभदेवायाघम् । लक्ष्मीद्वयं वाह्यगतांतरंगभेदात्पदाने विलुलोठ यस्य।।
यस्मात्सदा श्रीधरकीर्तिमापत्तमर्चयेद्याश्रितभव्यसार्थम् ॥ ४७५॥ जाका चरणाग्रमैं वाह्य अरु अंतरंग भेदते दोउ तरफकी लक्ष्मी लोटै है याहीत सदा ही श्रीधर नाय प्राप्त होत भयो, ता श्रीधर देवर्ने आश्रय किया है भव्य समूह जान, तार्ने पूजू हूँ॥४७५॥
ओं ह्रीं श्रीधराय अर्घम् । श्रियं ददातीह सुभक्तिभाजां वृंदाय यस्मादिह नाम जातं ।
श्रीदत्तदेवं भवभीतिमुक्त्यै यजामि नित्याद्भुतधामलक्ष्म्यै ॥ १७६ ॥ इस संसारमें सुंदर भक्तित भजनेवारेका समूहके अर्थि श्री जो आत्मा लक्ष्मीकूदेव है, ता कारण श्रीदत्त ऐसा नाप भया ताक मैं संसारका भय नित्यर्थ अरु निख अद्भुत गृह मोक्षकी लक्ष्मीके निमित्त पूजू हूँ॥ ४७६ ॥
ओं ह्रीं श्रीदत्तजिनायार्यम्। सिद्धाप्रभांगस्य विसर्पिणी तन्मध्येजनुः सप्तकदर्शनेन ।
सम्यग्विशुद्धिर्मनसो यतस्त्वां सिद्धाभ ! यज्ञेऽर्चयितुं समीहे ॥ ४७७॥ जाका अंगकी फैलावती प्रभा प्रसिद्ध है, तामैं पाणीका सातभव देखिवाने मनकी सम्यक विशुद्धि होय है, ता कारण हे सिद्धाभदेव ! इस । यज्ञमैं तूने पूजवेकू वांछु हूं ॥४७७॥
ओं ही सिद्धाभजिनायाघम्। प्रभामतिः शक्तिरनेकधा सध्यानलक्ष्म्या यत उत्तमाथैः ।
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