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________________ AILABISAPURCHASSAGAR ओं ही निर्वाणजिनायाघम्। श्रीसागरं वीतममत्वरागद्वेष कृताशेषजनप्रसादं । समर्चये नीरचरुप्रदीप रुद्दीपिताशेषपदार्थमालं ॥ ४७१॥ बहुरि गयो है ममत्त्व रागद्वेष जिनके अरु कियो है समस्त जनके अर्थि प्रसन्नता जानें ऐसा, अरु प्रकट किया है समस्त पदाथ जानें ऐसा श्रीमान् सागर नापक श्रीजिनेंद्रने जल चंदन चरु प्रदीपनि करि पूजू हूँ॥४७१ ॥ ___ों ही सागरजिनायार्घम। श्रीमन्महासाधुजिनं प्रमाणनयप्रमाणीकृतजीवतत्त्वं । स्याद्वादभंगप्रणिधानहेतुं समर्चये यज्ञविधानसिद्ध्यै ॥ ४७२॥ बहरि प्रमाण नय करि निश्चित किया है जीवतत्त्व जाने अरु स्याद्वादभंगका प्रणयनका कारण पेसा श्रीमान् महासाधु नायक जिनेंद्रने यज्ञविधानकी सिद्धिके अर्थि पूजू हूँ॥४७२॥ ओ हो महासाधुजिनायाघम् । यस्यातिसाज्ज्ञानविशालदीपे प्रभासमानं जगदल्पसारं । विलोक्यते सर्षपवत्कराग्रे समर्चयेऽहं विमलप्रभाख्यं ॥७३॥ बहुरि या विमलप्रभ तीर्थकरका समीचीन ज्ञानमय विशाल दीपकमैं येह जगत कराग्रमै सरस्यू'की नाइ प्रभासन करता अल्पसार दीखिये || है ता विमलप्रभ जिनेंद्र. मैं पूजू हूँ॥ ४७३॥ ओं ही विमलप्रभायार्घम् । समाश्रितानां मनसो विशुद्ध्यै कृतावतारं मुनिगीतकीर्तिम् । प्रणम्य यज्ञेऽहमुदंचयामि शुद्धाभदेवं चरुभिः प्रदीपैः ॥ ४७४ ॥ VIRALAMICROPHASPAC १५५ Jain Education a l For Private & Personal Use Only Chinelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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