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________________ प्रतिष्ठा १६० Jain Education *৬৬ क्रोध अरु कामरूपी वरीका विद्यात अर्थ उत्पन्न दुवो है क्रोध जाके तातै कृष्ण ऐसा नाम हुवा अरु शुद्धिके योगते शुचिता मात ऐसा कृष्णमति जिनकू पूजू हूं ॥ ४८६ ॥ ह्रीं कृष्णमतये जिनाय अर्धम् । ज्ञानं मतिर्भाव' उपाश्रयादिरे कार्यएवप्रणिधानयोगात् । ज्ञानेमतिर्यस्य समासजाते र्यथार्थनामानमहं यजामि ॥ ४६० ॥ ज्ञान अरु मति अरु भाव अरु उपाय आदि प्रणिधान के योग एकार्थक है बातें ज्ञान विवै है पति जाको सो सपास के योग ज्ञानमति नामक जिनेंद्रनें पूजू हूं ॥ ४६० ॥ ह्रीं ज्ञानमतये जिनाय अर्घम् । समस्यमानान्यपदार्थजातं धुरंधरं धर्मरथांगनेमिः । जिनेश्वरं शुद्धमतिं यजेत प्राप्नोति शुद्धां मतिमेव ना सः ॥ ४६१ ॥ एक किया है समस्त अन्य पदार्थसमूह जानै अरु धर्मचक्रका नेविका बुरंबर ऐसा शुद्धिरति नामक जितेंद्रने जो पुरुष पूजे है, सो शुद्धिमति ही पावे है ॥ ४६१ ॥ हों शुद्धमतये जिनायार्घम् । संसारलक्ष्म्या अतिनश्वरायै जन्ममुद्रामिव कुत्सयन्वा । भद्रा शिवश्रीरिति योगयुक्त्या श्रीभद्रमीशं रभसाचयामि ॥ ४६२ ॥ अति विनाशीक संसारलक्ष्मीकी जन्मनक्षत्र मुद्रानै निंदन करतो अमोलनको प्रशंसा करतो ऐसा योग की युक्तितै सार्थक श्रीभद्र तिननै वेग करि पूजू हूं ॥ ४६२ ॥ श्रीं ह्रीं श्रीभद्रजिनाय अर्धम् । अनंतवीर्यादिगुणप्रसन्नमात्मप्रभावानुभवैकगम्यं । अनंतवीर्यं जिन स्वीमि यज्ञार्थ भागैरुपलाल्यमानं ॥ ४६३ ॥ For Private & Personal Use Only पाठ १६० relibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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