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________________ प्रतिष्ठा अनंतवीर्य आदि गुणसंयुक्त अरु आत्माका प्रभावरूप अनुभवहीके अद्वितीय गम्य अरु यज्ञनिमित्तकृत भागत सेवा-रूप भयो अनंतवीर्य जिनन स्तुति करूंहूँ॥४६३॥ ओं हों अनंतवीर्यजिनाय अर्धम्। पूर्व विसर्पिण्यथ कालमध्ये संजातकल्याणपरंपराणाम् । संस्मृत्य सार्थ प्रगुण जिनानां यज्ञेसमाहूय यो समस्तान् ॥४९॥ ऐसें पूर्व विसर्पिणी काल मध्ये हुवा है कल्याण परंपरा जिनके ऐसे जिनेंद्रनका गुण-युक्त समूहन स्मरण करि अरु इस यज्ञमैं तिन | समस्तनने बुलाय पूजू ह॥४६४॥ पों हीं अस्मिन् प्रतिष्ठामहोत्सवे याज्ञमंडलेश्वरद्वितीयवलयोन्मुद्रितनिर्वाणाधनंतवीर्यान्तेभ्यो भूतजिनेभ्योऽर्घम् ॥ इस प्रतिष्ठा-उत्सवमै यागमंडलका द्वितीय वलयमै स्थापित भूतजिनेन्द्र अर्घ देना। UCERSINHATECECARRIER ASARACTECEMARA अथ तृतीयवलयस्थापितवर्तमानजिनपूजा। अब तीसरा वलयमै स्थापित वर्तमान जिनपूजा कहिये हैं: मनुनाभिमहीधरजात्मभुवं मरुदेव्युदरावतरंतमहं । प्रणिपत्य शिरोभ्युदयाय यजे कृतमुख्यजिनं वृषभं वृषभं ॥ ४६५॥ बहरि नाभि कुलकर पृथ्वीपतिका पुत्र अर मरुदेवी राणीका उदरमै अवतार लियौ, अर यज्ञविधानमैं मुख्य, अर धर्म करि शोभायमान ऐसा वृषभनाथस्वामीन मस्तक नपाय पूजू हूँ। ४६५॥ ओं ही ऋषभजिनायाघम्। जितशत्रुगृहं परिभूषयितुं व्यवहारदिशा तनुभूप्रभवं । Jain Education et lenal For Private & Personal Use Only nelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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