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प्रतिष्ठा
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नयनिश्चयतः स्वयमेवभुवमजितं जिनमर्चतु यज्ञधर ॥ ४९६ ॥ जितशत्रु नामका राजाका गृहन भूषित करिवेकू व्यवहारनय करि पुत्र अर निश्चयनयत स्वयं आप ही उत्पन्न भयो, ऐसा अजितनाथखामीन यज्ञको कर्ता पूजो॥४६६॥
_ओं ही अजितजिनाय अर्थम् । दृढराजसुवंशनभोमिहिरं त्रिजगत्रयभूषणमभ्युदयं ।
जिनसंभवमूर्ध्वगतिप्रदमर्चनया प्रणमामि पुरस्कृतया ॥ ४९७ ॥ दृढ़रथ राजाका वंशरूप प्राकाशमैं सूर्य समान अरु तीन जगतका भूषण अरु उदय-रूप अरु उर्ध्वगतिका दायक, ऐसा संभवनाथ जिननं आग किई ऐसी पूजा करि प्रणाम कम हूं ॥४६७॥
ओं ही संभवजिनाय अयम् । कपिकेतनमीश्वरमर्थयतो मृतिजन्मजरापदनोदयतः।
भविकस्य महोत्सवसिद्धिनियादत एव यजे ह्यभिनंदनकं ॥१८॥ कपिका है चिह्न जाकै ऐसा ईश्वरन प्रार्थनावारा अरु मृत्यु-जन्म-जराते दरि होवाहारा भव्यके महान उत्सवकी सिद्धि होय है यात अभिनंदनस्वामीन मैं पूजू हूँ॥४८॥
ओं ही अभिनंदनजिनाय अर्ध। सुमतिं श्रितमर्त्यमतिप्रकरार्पणतोऽर्थकराख्यमवाप्तशिवं ।
महयामि पितामहमेतदधिजगतीवयमूर्जितभक्तिनुतः॥ ४६६ ॥ आश्रित पाणीकू बुद्धि प्रकर्षका देवात अर्थको करनेवारो अवाप्त हुवो है कल्याण जाकै ऐसा सुपतिनाथ इस जगदत्रयका प्रति पितापहरूपन भक्तिभावतें पूजू हूं ॥ ४६॥
ओं हो सुमतिनाथजिनेंद्राय अघम् ।
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