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________________ प्रविष्ठा | १३६ पात्रेऽर्पितं चंदनमौषधीशं शुभ्रं सुगंधाहृतचंचरीकं । स्थाने नवांके तिलकाय चच्र्यं न केवलं देहविकारहेतोः ॥ ४२३ ॥ प्रथम चंदनतें पात्र स्थापित करि चंद्रमा समान श्वेत अरु सुगंधत आये हैं भ्रमर जा त्रिषै ऐसा चंदनकू नव स्थानमें— ललाट १, मस्तक १, ग्रीवा १, ह्रदय १, बाहु २, प्रकोष्ठ १, नाभि १, पृष्ठभाग १ - तिलक निमित्त चर्चेन करनों; येह चर्चन देहका हेतु नहीं है ॥ ४२३ ॥ ओहां ह्रीं ह्रीं हः मम सर्वांग शुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा। श्री चंदनानुलेपः । E मंत्र :- ॐ ह्रां श्रादि चंदनका लेप करै । जिनांघ्रिभूमिस्फुरितां त्रजं मे स्वयंवरं यज्ञविधानपत्नी । करोतु यत्नादचलत्वहेतो रितीव मालामुररीकरोमि ॥ ४२४ ॥ इति मालाधारणं । यज्ञका विधानकी लक्ष्मी है सो जिनपाद भूमिकामैं स्फुरायमान मालानें 'मुझकू स्वयंवर करो' यही अचलपणाके निमित्त मालानें वक्षः स्थलमें धारण करू हूँ, ऐसें मंत्र करि माला धारण करै ॥ ४२४ ॥ धौतांतरीयं विधुकांतिसुत्रैः सद्गूंथितं धौतनवीनशुद्धं । नग्नलब्धिर्न भवेच्च यावत् संधार्यते भूषणमूरुभूम्याः ॥ ४२५ ॥ इसधोवस्त्रधारणं । फिरि चंद्रमा की कांतियुक्त सूत्रन करि गूंथ्यो ऐसो घोयो अधोवस्त्र (धोवती ) सोध्यो नबीजो है ताहि यावत् मेरें नग्नपरपाकी प्राप्ति नहीं होय तावत् जंघा भूमिमं भूषण रूप धारण करू हू ॥ ऐसें धोवती पहरना ॥ ४२५ ॥ Jain Education International संव्यानमंचद्दशया विभांतमखंडधौताभिनवं मृदुत्वं । संधार्यते पीतसितांशुवर्णमंशोपरिष्टाद् धृतभूषणांकं ॥ ४२६ ॥ इति दुकूलधारस्य । बहुरि मैं सुदर भांचल युक्त शोभायमान अरू अखंड धोत अरु नवीन अरू पीतव तथा श्वेतवर्ण दुपट्टानें भूषण मानि करि काँधा ऊपरि धारण करूहूं' ॥ ऐसें दुपट्टा पहरना ॥ ४२६ ॥ For Private & Personal Use Only पाठ १३३ www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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