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परमस्थानाय नमः । परमयोगिने नमः । परमभाग्यायमहद्ध ये नमः। परमप्रसादाय नमः। परमकांक्षिताय नमः। परयविनवाय नमः । परमविज्ञानाय नमः । परयदर्शनाय नमः। परमवीर्याय नमः। परमसुखाय नमः । सर्वज्ञाय नमः। अहंते नमः । परमेष्ठिने नबो नयः। सम्यग्दृष्ट त्रिलोकविजयधर्म मूर्त स्वाहा । सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु भवतु स्वाहा । अयं परमेष्ठिमंत्रः ॥७॥
इमे मंत्रा अधिवासनायां सर्वे उपयोगिनो भवति । अब श्लोकार्थ लिखिये हैं।
एवंविधान मंत्रवराननेकान् गुरूपदेशाद्विधिवद् प्रगृह्य ।
नितांतरम्यस्थलवेदिकायां जिनागतःप्राक् परिसाधयंतु ॥ ४२०॥ यज्ञका कर्ता पुरुष या प्रकार अनेक मंत्रवर जे हैं, तिन. गुरुका उपदेशः विधिपूर्वक ग्रहण करिके अत्यंत रमणीक स्थल युक्त वेदीमैं | जिनेंद्रके अग्र सिद्ध करो॥४२०॥ .
सहस्रमष्टोत्तरमत्र मुख्यो जपस्तदाराधकृता दशांशः।
होमो विधेयः पुनरिष्टकाले मंत्रण कार्यो विधिरर्ण्यमानः ॥ ४२१ ।। अरु इहां एक हजार आठ जप है सो मुख्य है। अरु ताका आराधन करनेहारा पुरुषले दशांश होम करने योग्य है। फिर इष्ट कालमैं जो है। विधि मनोभिलषित है सो मंत्र-पूर्वक करे॥२१॥
अथ यज्ञदीक्षाचिन्होहहनं। धृत्वागतो मंगलयंत्रधाम्नि प्रसाधना न्याहत यज्ञपीठे।।
अनादिसिद्धादभिमंत्र्य पूतान्यंगेषु धार्याणि यथाप्रशादं ॥ २२ ॥ अब यज्ञमैं अधिकारी पुरुषनका चिल ये हैं, सो कहिये है-यज्ञका चिह प्रथम मंगल-यंत्रका ग्रहमैं अहत संबंधी यज्ञ पीठमैं अबभाग प्रलं| कार धरि करि अनादि सिद्ध मंत्र मंत्रित करि पवित्र भये तिनकू अपनी इच्छानुकूल अंग विर्ष धारण करना ॥ ४२२ ॥
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