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शीर्षण्यशुंभन्मुकुटं त्रिलोकी हर्षाप्तराज्यस्य च पट्टबंधं ।
दधामि पापोर्मिकुलप्रहंत रत्नाढ्यमालाभिरुदंचितांगं ॥ ४२७ ॥ इति मुकुटधारणं । तीन लोकको हर्षतें प्राप्त भया राज्यका पट्टबंध समान अर रत्ननिकी माला करि व्याप्त भयौ है अंग जाकौ ऐसा शीर्षमैं सुन्दर मुकुट में पाप समूह. दूरि करिवेकूधारण करूंह॥ऐसे मुकुट धारना ॥ ४२७॥
गैवेयकं मौक्तिकदामधामविराजितं स्वर्णनिबद्धमुक्तं।
दधेऽध्वरापर्ण विसर्पणेच्छुर्महाधनाभोगनिरूपणांकं ॥१२८ ॥ इति ग्रैवेयकधारणं । ___ बहुरि मोतीनकी मालाका समूह करि विराजित सुवर्णमैं बंध्या है मोती जामैं ऐसा अवेयक जो कंठभूषण ताहि यज्ञमैं अर्पण किया सामग्रीके इच्छक मैं धारण करूहूं। और येह महाधनवानोंका भोगका दिखावनेहारो है। ऐसे कंठाभरण पहरना ॥ ४२८॥
मुक्तावलीगोस्तनचंद्रमाला विभूषणान्युत्तमनाकभाजां।
यथार्हसंसर्गगतानि यज्ञलक्ष्मी समालिंगनकृद् दधेऽहं ॥ १२६ ॥ इति हारधारणं। | बहुरि यज्ञकी शोभानें प्राप्त होनेवारो मैं मुक्तावली हार अरु गोस्तनहार अरु चंद्रपालाहार आदि भूषणर्ने देवोंका यथायोग्य संसर्ग प्राप्त भये तिनकूधारूहूँ॥ ऐसें हार पहरना ॥ ४२६॥
एकत्र भास्वानपरत्र सोमः सेवां विधातुं जिनपस्य भक्त्या ।
रूपं परावृत्य च कुंडलस्य मियादवाप्ते इव कुंडले है॥ ४३० ॥ इति कुंडलधारां। बहुरि श्रीजिनेंद्रकी सेवा भक्तिपूर्वक करनेकू एक तरफ मूर्य अरु द्वितीय तरफ चंद्र है सो दोऊ कुंडलका मिषत अपना रूपका परावर्तन करिही या कुंडल हैं ते धारण करूं हूँ॥ऐसे कुण्डल धारण करना ॥ ४३०॥
भुजासु केयूरमपास्तदुष्टवीर्यस्य सम्यक् जयकृत् ध्वजांकं । दधे निधीनां नवकैश्च रत्नैर्विमंडितं सदग्रथितं सुवर्णे ॥४३॥ इति केयूरधारणं ।
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