SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिष्ठा ५५ RIGIN: अरु दिशांमें द्वारनिकरि शोभायमान अरु ध्वजा घर छोटो धुजानिकरि व्याप्त ऐसा राजचिन्द छत्रादि चामर सिंहासन आदि हैं संपदा जहां ऐसा दर्शन करनेवारेनके प्रीतिको देनेहारो स्थंडिल करै ॥ २२६ ॥ स्थंडिलं याद हीनांगं यष्टुर्नाशाय कीर्तितं । अधिकं राष्ट्रभंगाय तस्माद् योग्यं प्रकल्पयेत् ॥ २७ ॥ अरु जो स्थंडिल अपनी प्रमाणतासे हीन होय तो यजमानका नाश करे। जो अधिक होय तो राज्यका देशका नाश करे। माही हेतु स्थंडिलने सममूत्रपात करि माप ही करने योग्य है ॥ २२७ ॥ वेदी चतुर्विधा तल चतुरस्रा च पद्मिनी । श्रीधरी सर्वतोभद्रा दीक्षासु स्थापनादिषु ॥ २८ ॥ अर वेदी च्यारि प्रकार है-१ चोकोर, २ कमलके आकार पद्मिनी नामक, ३ श्रीधरी अर्धचन्द्राकार, ३ सर्वतो भद्रा आठ कूटकी, सो दीक्षा में तथा प्रतिष्ठामें करनी ॥ २२८ ॥ Jain Educationational चतुरस्रा चतुःकोणा वेदी सौख्यफलप्रदा । केचिच्चैत्यप्रतिष्ठायां पद्मिनी पद्मसंनिभा ॥ २६ ॥ अरु तामें चौकोर बड़ी सुखकी देनहारी आचार्यने विवप्रतिष्ठायें पद्मिनी नामक कही है पद्माकार ॥ २२६ ॥ शुभेहून लग्नात्प्रथमं तु पक्षादर्वाक् निशीथे यजनस्य कर्ता । आचार्य मामंत्र्य तदाज्ञयेंद्रतंत्रः स्वबंधूपस्मृतिं विदध्यात् ॥ ३० ॥ जनकौ कर्ता प्रथम एक पक्ष पहिली रात्रिने श्रीश्राचायेंने आमंत्रणकर असता की आज्ञाप्रमाण अरु इंद्रने साथि लेय अपना ] बंधु कुटुंब जनाने बुलाबै ॥ २३० ॥ तान्मानयित्वा कुलकामिनीभिः कन्याभिरष्टाभिरलंकृताभिः । For Private & Personal Use Only पाठ ५५ elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy