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प्रतिष्ठा
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अवाप्तसंसारतटः स्वलब्ध्या निमित्तमन्यत्समुपस्थितोऽसि ।
स्वयंप्रबुद्धः प्रभविष्णुरीशः कदापि नास्मत्स्तवनेन बुद्धः ॥ ८२७ ॥ अर स्वामिन् ! तु अपनी लब्धिकरि संसार समुद्रका पार प्राप्त होनेवारो है अन्य तो निमित्तमात्र हैं, तुम स्वयंबुद्ध हो, समर्थ हो, खामी हो, हमारा स्तवनकरि कदापि नहीं बुद्ध हो ॥२७॥
प्रकाशितं सूर्यमुदीक्ष्य दीपः स्वयं स्वदीप्त्या किमु भासयेत् ।
गंगा स्वयं शीतलतोपदात्री किं पल्वलेन स्वतृषां भनक्ति ।। ८२८ ।। अर विश्वका प्रकाश करनेवारा सूर्यने देखि दीप कहा अपनी प्रभाकरि प्रकाश करै? तथा गंगा नाम नदी स्वयं शीतल जल देनेवारी है सो कहा छोटा सरोवरसें अपनी तृषा मैट तैसें आप जगत्पितामहने हम कहा उपदेश देय संवोध ? ॥२८॥
जय कल्याणपरंपर मदनमयंकर निजशक्तिपते।
जय शाश्वतसुखकर त्रिभुवनमहिधर जय जय जय गुणरत्नपते ॥८२६ ॥ हे कल्याण परंपरावारा जयवंत होहू, हे अविनाशी सुखका करनेवारा जयवंत होह, हे त्रिभुवनका पृथ्वीधर ! जयवंत होहू, अर हे गुणरनका पति-ईश्वर जयवंत होहु ॥२६॥
. इति स्तुत्वा जिनेशानां नतमस्तकमौलयः।
. मंदारकुसुमोदाममालया! व्यधुः सुराः ॥८३०॥ या प्रकार नम्रीभूत है मस्तक मकुट जिनका ऐसे लोकांतिकदेव श्री भगवानने स्तुतिकरि मंदार आदि कल्प वृक्षके पुष्पनिकी पंक्तिकरि । पूजाने रचते भये॥३०॥
इति विवोपरि लोकांतिकदेवर्षिकृतपुष्पांजलिः। ऐसें विंब ऊपरि लौकांतिक देवनिकरि पुष्पांजलि क्षेपनी।
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