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________________ अथ श्रीगुरुसे पूछ है कि हे मुनिवर ! यसका प्राप्त भया है समुद्र पार जिसने ऐसा प्राचार्य ने नमस्कार करि अपनी बांछको प्राप्त होनेका इच्छुक मैं हूँ, आप इसकार्य का उद्देशमें निमित्तनै कहो। ऐसे पूछ्ता वह मुनि भी समीचीन चित्त काग्र-संयुक्त प्रात्माकी प्रतिभा कहिये युक्ति पूर्वक बुद्धिकरि तिनि निमित्तने पालोकन करे सो एकांत वन आदिमें उपवासका धारण करे ॥२०६॥ REC प्रतिष्ठा %9A-%S RECORRENAKALKHASOKARINGHDOORSA अथ तत्समयशकुनावधारण । भूमौ विधाय परिकर्म चतुष्कमध्ये चक्रं सुकूर्मविधिना परिभाव्य रम्यं ।। देवांशसंस्थितिवता खलु सिद्धचक्र मंत्रं यथोक्तविधिना परिजल्पनीयं ॥ २०७॥ अथ ता समय शकुनका अवधारण करै वह आचार्य अथवा मुनि भूमिमें ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक परिकर्वने करि कर्मचक्र लिखै। चतुष्क कहिए । नियमकरि स्थापन किया चौकामें स्थितिकरि राक्षस मनुष्य देव ऐसा त्रिभागर्न जहां देवांश आवै तहां पद्मासन माडि सिदचक्रम'त्र जो ‘ों ही अनाहतसिद्धचक्राधिपतये ह ही ह्रीं स्वाहा' इस मत्रका जप करे, पाछे वहां ही शयन करे इहां प्रतिष्ठामें गृहस्थाचार्य हीका प्राधान्य. है। वीत| राग मुनिका क्रियाको कर्तव्यमें मुख्यता नहीं है। ऐसा भी जान लेना ॥२०७॥" स्वप्ने स्वरांगाविधाविधिज्ञः प्रातर्जिनाराधनसंस्तवं च । कृत्वोपदिश्येत यथावरीयं शुभाशुभं यन्निशि लोक्यमानं ॥ २० ॥ फिरि वहां स्वप्नमें स्वर अग नक्षत्र इनि भेदनमें निगमन स्फुरण कंपन आदि शुभाशुभ सूचक है तिनकी विधिनें जाननेवालो प्रभातही उठि जिन'द्रको पूजन संस्तवन करि जो यज्ञमें शुभाशुभ रात्रिने देखा था सो निवेदन करे ॥२०८॥ गोहस्तिशार्दूलमुनीश्वराणां चंद्रार्यमाम्भोनिधिकल्पभाजां। शालेयमुक्ताफलपर्वतानां सौख्याय दृष्टिः स्वप्ने नितांत ॥६॥ स्वप्नमें बैल, हाथी, सिंह, मुनि तथा चंद्रमा, सूर्य, समुद्र, कल्पवृक्ष तथा चावल, मोती, पर्वत इत्यादिकी दृष्टि प? तो सुख प्राप्ति करे अरु निर्विघ्न कार्य सिद्धि होय ॥२०६॥ ECREDGEOGREECH Jain Educatie For Private & Personal Use Only Alibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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