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________________ प्रतिष्ठा समाप्तिकाले मनुजल्पनस्य वामा शुभांका निजनाडिकेष्टा । आरंभकाले खलु दक्षिणार्ध्या स्वस्थस्य निर्णीतिकृतो जनस्य ॥२१०॥ अर मन्त्रका समाप्ति समयमें अपनी वाम नाडी बहै तो शुभ इष्ट है पर प्रारंभ समयमें दक्षिण नाड़ो श्रेष्ठ है परंतु इह नियम बात पित्त । कफ आदि रोगरहितके अरु स्वर निर्णय करनेवाला जनके होय है ॥२१०॥ बाहोः परिस्फूर्तिरुरोनितंबतुंदस्तनानामपि सौख्यपात्रं । घन तु नित्यं विपरीतपक्षः स्यादेतदंगस्फुरणे निमित्तं ॥ ११॥ __ अर दक्षिण भुजाका फरकना वा वक्षस्थल अरु नितंब-भाग अरु उदर अरु स्तनका फुरकना भी शुभ है परन्तु दिनमें है। रात्रिमें वाप! शरीर ही श्रेष्ठ होय है अर जपमें तथा प्रभातनिमित्तावलोकन समयमें एक कुभ लग्न विना सर्व ही श्रेष्ठ होय है ॥२११॥ लग्ने विचार्ये सति कुंभवज्यं षष्ठाष्टमे चंद्रमसा वियुक्ते। धर्मे गुरौ तदृशिनापि युक्ते वीर्ये तनौ वा बलवत्प्रदिष्टे ॥ १२॥ अरु अन्य लग्नमें चन्द्रमा छठे आठमें नहीं होय अरु दशमभावमें वृहस्पति होय वाकी दृष्टि भी होय अरु लग्न बलवान होब तौ शुभ कहिये ।। २१२॥ तैलसर्पधरणीधरकंपमाक्षिकाक्ततनुकूपनिपाताः । यद्यशुद्धशकुनेक्षणलब्धी शांतिकर्म विदधीत तदानीं॥ १३ ॥ अर जो स्वप्नमें तैल सर्प पर्वतका कंपन, अरु स्वहस्तसे लिप्त शरीर यद्वा वनमक्षिकान करि व्याप्त शरीर अरु कुप्रामें पड़ना इसादि अशुभ शकुनका देखना अथवा लाभ होय तो उसी समय शांतिविधान करना ॥२१॥ । Jain Educat For Private & Personal Use Only K helibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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