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________________ SCRIDEOCESSINGHASTROLMCOLABALI अथ प्रतिष्ठेयस्वरूपम्। अब प्रतिष्ठेयका स्वरूप वर्णन करिये हैं: __स्वर्णरत्नमाणिरौप्यनिर्मितं स्फाटिकामलशिलाभवं तथा। उत्थितांबुजमहासनांगितं जैनविंबमिह शस्यते बुधैः ।। ६६ ॥ सुर्वण रत्न मणि चांदी आदिकरि निर्माण किया तथा स्फटिक अर निदोष शिलात उत्पन्न किया अर कायोत्सर्ग वा पन्नासन करि अकित ऐसा जिनेन्द्रसंबंधी विच पंडित जनने सराया है॥६६॥ शांतं नासाग्रदृष्टिं विमलगुणगणैर्धाजमानं प्रशस्त मानोन्मानं च वामे विधृतवरकरं नाम पद्मासनस्थं । व्युत्सर्गालंबिपाणिस्थलनिहितपदांभोजमानम्रकंवु ध्यानारूढं विदैन्यं भजत मुनिजनानंदकं जैनविंबं ।। ७०।। हे भव्य हो ! शांतमुद्राधारी नासिकाका अग्रभाग पर लगाई है दृष्टि जाकी अर निर्मल गुणनिकरि शोभायमान अरु मानोन्यान करि प्रशस्त | वाम हस्तमें धारण किया है दक्षिण हस्त जिनने पद्मासनमें तिष्ठता वा कायोत्सर्ग करि लंबायमान है करयुगल जाका अर स्थलमें स्थापित है। किया है चरण कमल जाने, किंचित नम्र है ग्रीवा जाकी, अरु ध्यानारूढ अर दीनतारहित अर मुनिजनकू आनंदका कर्ता ऐसा जैन विंचने || भजो ॥७॥ उत्कीर्ण स्फटिकाशिलारुणहरित्पीताश्माभित्तावपि स्थूल ह्रस्वमवेल्लितं स्थिरतरं शस्तं प्रतिष्ठाविधौ । प्रत्ययं चलनक्षमं दृढ़वपुःसंधिं तथा धातुजं योग्यं नित्यमहोत्सवेषु शिविकासत्स्यदनारोहणे ॥७॥ स्फटिक वा नील वा रक्त वर्ण वा हरितवर्ण वा पीतवर्ण जो पाषाणकी भित्तीमें उकीरथा हुआ स्थूल वा छोटा अरु कुटिलतारहित अरु | स्थिर ऐसा जिनविच प्रतिष्ठाकी विधिमें प्रशस्त है और नवीन अरु हलन चलनमें समर्थ अरु दृढ़ है शरीरकी संधि नाकी बया धातुसंबंधी |ऐसा नित्योत्सबनिमें पालकी अथवा रथका आरोहणमें योग्य कहा है ॥७॥ CALCREAAAAA - Jan Educati o nal For Private & Personal Use Only elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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