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प्रतिष्ठा
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संदृष्ट्वा प्रतिमानमात्मविलसद्भावेषु संकल्पना ___ निर्बाधेति गुणैः सुशीलगणने चितामकामृत्स्त्रियाः । संगं चित्तविमर्षणान्नियमतो ज्ञात्वा तु संत्यज्यते
सुज्ञानैस्तदनेकनीतिनिपुणैः संस्थापना श्लाघ्यते ॥ ६७॥ इहां युक्ति कहिये है कि जिसका प्रतिबिंध किया होय तानै देखि आत्माका विलासरूप भावनिमें ताको संकल्पना निर्वाध है-अरोक है याही कारण शीलके भेदकी गणनामें चित्राम पाषाण काठको स्त्रोका प्ताहो गुणनफरि संग है सो चित्राम आदिको विक्षेपका कारण जानि
इनका संग भो नियमतें छांडिये है। यात हो समोचोन ज्ञानका धारो अनेक नयों निपुण ऐसे पुरुषनिनै स्थापना निवेप भी रागदप तथा 8| शांतिमुद्राका हेतु जानि श्लाघा करिये है ॥६॥
नो चेदत्र कलौ चराचरगुरुर्नो वा मनःपर्यय
ज्ञानी वावधिलोचनो मुनिवरस्तसंस्मृतेः कारण । तत्तर्हि स्मरणस्वभावशुचिताध्यानस्तुतेः संभवात्
सम्यग्दर्शनहेतुरेव गदिता संस्थापनाधीश्वरी।। ६८ ॥
इति प्रतिष्ठावश्यकर्तव्यतासमर्थनम् । अथवा पंचमाकालमें चराचरज्ञानधारी गुरु नाही हैं, अथवा मनःपर्ययधारी नाहों हैं वा अवधिज्ञानो नाहीं हैं कि जो असल अहतका स्परणका कारण होंय तातें ताका स्मरण स्वभावको स्वच्छता ध्यान स्तुतिका संभवपणा" या अहंत की स्थापना हो सम्यग्दर्शनका हेतु है ऐसे कही है॥६॥
पसै प्रतिष्ठाकी आवश्यक्ताका समर्थन किया।
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तमुद्राका हेतु जान छाडिये है । यात हो मालाण काठको स्वीकार
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