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________________ प्रतिष्ठा १५ Jain Educatio तादिनसे महाधन पुरुष जिनमतिष्ठा कर अपनेकू धन्यतम मानि अनादिकाल से प्राप्त भया जिनेन्द्र चंद्रका मुखारविंदतें उन्नत कहिये प्रगट भया ऐसा प्रतिष्ठा विधान कहिये है ॥ ६३ ॥ इति अनादिकालतें परंपरा उपदेशपूर्वक पुण्यानुबंधकारक जिनवैत्यवैत्यालय समर्थन किया । अथ प्रतिष्ठालक्षणम् । अब प्रतिष्ठा लक्षण कहिये है— प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा च स्थापनं तत्प्रतिक्रिया । तत्समानात्मबुद्धित्वात्तदभेदः स्तवादिषु ॥ ६४ ॥ प्रतिष्ठान, प्रतिष्ठा, स्थापन, तत्प्रतिक्रिया कहिये ताकासा करणा इत्यादि नाम प्रतिष्ठा शब्दका है। अर ताके समान आत्मबुद्धि होनेत वाका पूजनमें स्तवन अभेद है ॥ ६४ ॥ यत्रारोपात् पञ्चकल्याणमंत्रैः सर्वज्ञत्वस्थापनं तद्विधानैः । तत्कर्मानुष्ठापने स्थापनोक्तनिक्षेपेण प्राप्यते तत्तथैव ॥ ६५ ॥ अरु जहां पंचकल्याणक के मन्त्रनिकरि आरोप अर्थात् तद्गुण ताका गुणको स्थापन सो आरोप है तातें अरु ताका विधान करि सर्वज्ञपणाको स्थापन सो कर्मनका क्रियाका अनुठान करि स्थापना निक्षेप करि उस वस्तू उसही असल मार्ग में तैंसे हो प्राप्ति करिये है अर्थात् स्थापनानिक्षेपका प्रधानपणा करि ता वस्तुको तथाज्ञान होय ही है ॥ ६५ ॥ नामक्षेपात्स्थापनांगप्रधानात् भावारोपाद् भव्यवृन्दैकमान्यात् । पूजास्तोत्रं सत्त्वबुद्धया कृतं वै पुण्यं सूते किं न नानाप्रकारं ॥ ६६ ॥ रु नाम निक्षेपका प्रधान अरु भाव का आरोपण भव्यसमूह करि सर्वथा पूज्यपण करि पूजा तथा स्तोत्र वस्तुकी सत्ता बुद्धिकरि कीया है सो नाना प्रकार पुण्य कहा नाहीं प्रगट करे है। अर्थात् करे ही करे ॥ ६६ ॥ tional For Private & Personal Use Only पाठ १५ inelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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