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________________ प्रतिष्ठा PRECARCI A A-ARArIRENCREASI-STAR मूर्छा धनेषु प्रतिहत्य भक्त्या कृतेति साष्टान्हिकनामभाज्या ॥ ५६ ॥ इंद्रध्वज महाशांतिक सिद्धचक्र त्रैलोक्यविधान कोटिगुण आदि पूजा है सो धन वैभव में मूर्छा दुरिकरि भक्तिकरि किया है, सो अष्टाद्विका नामक है ॥५६॥ पूजाहणार्चा यजनं च यज्ञ इज्या सपर्या परिसेवनं च । महः क्रतुः कल्प उपासनेति प्रभृत्युपाख्या जिनपूजनस्य ॥ ६॥ पूजा अर्हणा अर्चा यजन यज्ञ इज्या सपर्या सेवा मह ऋतु कल्प उपासना इत्यादिक जिनपूजनका पर्याय नाम हैं ॥६॥ दत्तिं चतुर्धापि दयासुपात्रसमान्वयाधारभिदा निरूप्य । सागारधर्म व्यवहाररूपं निबोधयामास विधैर्विधानात् ॥ ६१ ॥ दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति, अन्वयदत्ति ऐसे आधार भेदतें दत्तिने च्यार प्रकार निरूपण करि व्याहाररूप सागारधर्मनै विधिका || विधान करनेवारा श्रीआदिनाथ निबोधन करता भया ॥१॥ श्रुत्वा समासाद् भरतेश्वरोऽपि कैलासभूधे माणिरत्नचूर्णैः। द्वासप्ततिं जैनपमंदिराणां निर्माप्य चक्रे जिनविंबसंस्थां ॥ ६२॥ भरतेश्वर भी ऐसे संक्षेपपात्र सुनि कैलास नामक गिरिक उपरि भागमें मणि रत्ननिका चूर्णसे जिनेवरीका बहत्तर पन्दिर बणाय जिनेन्द्रPा विवकी त्रिकाल चौबीसीकी प्रतिमाकी स्थापना करतो भयो॥२॥ ततःप्रभृत्येव महाधनैः खं प्रतिष्ठया धन्यतमं विधाय । संरच्यतेऽनादिजिनेन्द्रचन्द्रमुखोद्गतं स्थापनसद्विधानं ॥ ६३ ॥ इत्यनादिकाल जायमान मन्दिर विवस्थापनासमर्थ प्रतिष्ठालक्षणं । -AROBARRRRECORESCENERALA Jain Education Dilma For Private & Personal Use Only library.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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