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वसंततिलका छंदः। स्वामी जगाद परया सुगिरातिशायिन्या भव्यवर्य ! चतुरङ्गभिदा तदिज्या।
चातुर्मुखप्रतिदिनार्चनकल्पशाखीवास्वान्हिकश्रुतिरिति प्रथिता पुराणैः ॥ ५५ ॥ तब श्रीस्वामी ऋषभदेव अतिशयवती दिव्यवाणी करि कहता भया कि हे भव्यप्रधान ! सो इज्या चतुःप्रकार चतु मुख नाम, नित्यार्चन, कल्पवृक्षनाम अरु आष्टाह्निकनाम करि पुराण पुरुषनिने विख्यात कियी है ॥५५॥
सम्राभिरर्थनिधिभिश्च चतुर्दिशासु संस्थीयमानजिनमूर्तिषु या महाया॑ ।
संकल्प्यते शतसुरेन्द्रनिभैजिनार्चा पूर्वोदिता प्रचुरपुण्यविधानदानी ॥ ५६ ॥ जो अर्थका स्वामी चक्रवर्तीनिने चारू दिशामें जिनप्रतिमा स्थापन करि महान् अन्य संयुक्त शत इंद्रनि करि रची प्रचुर पुण्यकी देनेवाली चर्तु मुख नामक जिनेन्द्रकी पूजा कल्पना कियी है॥५६॥
नित्यं स्वयं निजगृहाजलचंदनादि लात्वा जिनेन्द्रभवने किल भावशुद्धया ।
ईर्यापथप्रचलनेन शुभोपयोगादर्चा हि सा प्रतिदिनाचनमुक्तमुच्चैः ॥ ५७ ॥ अरु जो अपना गृहत स्वयं पाप निस जल चंदन आदि पूजनोपस्कार लेय जिनेन्द्र भवनमें भावशुद्धि करि अर ईर्यापथ गमन करि शुभोपयोग” किया अर्चन है सो उच्च प्रकार नित्यार्चन कहिये है ॥७॥
दुःखार्तदुर्विधजनानुनयेन दानं यादृच्छिकं वृषविधायि पुरा ददित्वा।
पश्चात्समर्चनममौल्यमणिप्रतानसोपस्करं भवति कल्पतरुप्रमाख्यं ॥ ५८ ॥ अरु दुःखित दरिद्री जनांकी वांछपूर्ण करि अर्थात् पुण्यको देनेवाला यादृच्छिक (उनको वांछाके अनुसार) दान देकर बहुमूल्य मणि आदिकी सामिग्रीसे जिनेंद्रकी जो पूजन है सो कल्पक्ष नामक है ॥५५॥
इन्द्रवज्रा छन्दः। ऐन्द्रध्वजं शांतिकसिद्धचकूत्रलोक्यकोटीगुणकादिकार्चा ।
क बकारवर
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