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________________ प्रतिष्ठा AUR RECRLGC R ANGARCIRORawat वन्याः समिद्भीरचितां दृषत्सूत्कीर्णामिवांगप्रतिमां निरीक्ष्य ।। कडूतिनांगानि लिहंति येषां धाराप्रमर्पण यजामि सम्यक् ॥ ५६५॥ वनमें भये पशु हरिणादिक जे हैं ते काष्ठकरि रचित तथा पाषाणमैं उकीरी ही है ऐसी जिनकी पद्मासनादि प्रतिमानै देखि खुजावने | सहित अंगनिकूचाट हैं, तिन आचायनिकी अग्रभूमिनै मैं भय करि पूजू हूँ॥५५॥ भों ही कायगुप्तिसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् । सामायिक जाहति नोपदिष्टं त्रिकालजातं ननु सर्वकाले । रागक्रुधोर्मूलनिवारणेन यजामि चावश्यककर्मधातून् ॥ ५६६ ॥ जो गरु परपरा उपदिष्ट सामायिक पाठनै त्रिकाल सर्वकालमैं नहीं छोडे है। अरु रागद्वेषको मूलका निवारण पूर्वक प्रावश्यक कर्मने धारण करते आचानिने मैं पूजू हूं ॥५६॥ ओं ही सामायिकावश्यककर्यवारिभ्य प्राचार्यपरमेष्टिभ्योऽयम् । सिद्धश्रुतिं देवगुरुश्रुतानां स्मृति विधायापि परोक्षजातं । सबंदनं नित्यमपार्थहानं कुर्वति तेषां चरणौ यजामि ॥५९७॥ अरु सिद्धनिको स्मरण तथा देव गुरु शास्त्रनिको स्मरण करिके परोक्ष बंदना नित्य करै है गुणसयुक्त तिनका चरणनिने मैं पूजू ॥५७॥ ओं ही बंदनावश्यकनिरताचायपरयेष्टिभ्योऽय।। तेषां गुणानां स्तवनं मुनींद्रा वचोभिरुधूतमनोमलांकैः । कुर्वति चावश्यकमेव यस्मात् पुष्पांजलिं तत्पुरतः क्षिपामि ॥ ५९८॥ ORRECERE Jain Education a l For Private & Personal Use Only walihelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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