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________________ अरमात्मगुणत अन्य पदार्थ हैं ते मेरे नाही अथवा मैं उनका नाहीं, ऐसी बुद्धि जिनकी प्रयाणनै प्रतीति करैं है तिनका चरणारविंदकी पूजा मैं करूह ॥५१॥ भों ही उत्तपाकिचन्यधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्यम् । रंभोवशी यन्मनसोविकारं कर्तुं न शक्ताऽत्मगुणानुभावान् । शीलेशतामादधुरुत्तमार्थी यजामि तानार्यवरान् मुनींद्रान् ॥ १२॥ अर रंभा तथा उर्वशी देवनिकी नृत्यकारिणी जिनका मनका विकार करने आत्मगुणका प्रभावते सपर्य नाहीं है ते शीलका ला स्वामीपणाने धारण करे हैं तिन उत्तमार्य प्राचार्य मुनींद्रने मैं पूजू हूँ॥५२॥ __ओं ही उत्तमब्रह्मचर्यपहानुभावधर्ममहनीयाचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् । संरोधनान्मानसभंगवृत्तः विकल्पसंकल्पपरिक्षयाच्च । शुद्धोपयोगं भजतां मुनीनां गुप्तिं प्रशंस्यात यजामहे तान् ॥ ५९३ ॥ मनसंबंधी विभंगवृत्तिका संरोधनकरि संकल्प विकल्पका क्षयते शुद्धोपयोगने भजनेवारे मुनीनिकी मनोगुप्तिकी प्रशंसा करि तिनि प्राचार्यनिनै मैं पूज हूं ॥५॥ ओं ही मनोगुप्तिसपन्नाचार्यपरयेष्ठिनेऽर्घम् । धर्मोपदेशात्तदृते कथाया भाषणात् संभ्रमतादिदोषैः । वियोजनाद् ध्यानसुधैकपानाद् गुप्तिं वचोगामटितान् यजामि ॥ ५६५॥ धर्मोपदेश विना अन्य कथामात्रका अभाषणर्ते तथा भ्रमादिता आदि दोषनिकरि वियुक्त होनेते ध्यानरूपी अमृतपानका होवात वचन गुप्तिने प्राप्त भये तिने में पूज हूँ॥५६॥ , ओं ही वचनगुप्तिधारकाचायपरपेष्ठिनेऽर्य UOUSALCHARGEOUSER Jain Educatio n al For Private & Personal Use Only elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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