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________________ प्रतिष्ठा ३५ RESIROHI GESAMACHAROKAR पृथक् कपाटादिधृतावकाशा वेदी त्रिभंगा त्रिककहिनीका । ऊर्ध्व महबृत्तशिरस्कदेशे छत्रोपमं केतुसुकिंकिणीकं ॥ १३६ ॥ तदूर्ध्वदेशे शिखराकृतिस्थे जिनेंद्रविबादिलसत्सुशोभं । प्रदक्षिणा तत्परितो विधेया यथा सुशोभं गृहकल्पनादि ॥ १४० ॥ पूर्वोत्तर वा उत्तर एकही द्वार अरु पार्श्व में सभामें शास्त्रोपदेश, मध्यमें चौक, तहां महाशांतिकादि मंडल ताके भागे जिनपिंथनिकी स्थिति, | तहां जुदा स्थानसूचक वेदी, तीन कटिनी अरु ऊपर अंडाकृति शिखरमें ध्वजा किंकिणी संनिवेश होय । उपरिय शिखरमें जिनेंद्रबिंब आदि शोभा और प्रदक्षिणा होय और सरस्वती भांडार यथावकाश शोभायमान होय यो तीसरा विधान है ।। १३८४०॥ द्वित्रिक्षणं वाऽपि चतुःक्षणादि शृंगोन्नतं केतुपरीतभालं। वास्तूत्पथं कर्तुरनर्थयोगस्तस्माद्विधयं किल वास्तुपूर्वं ॥ १४१ ॥ आगे कहै हैं-ए मंदिर दोयखण तीन खण चारि खग्ण आदि होय, शिखर ध्वजा उपरि खण में होय ऐसे वास्तुविधिकू उतधन कर ताके अनथको योग होय तातें वास्तु शास्त्र विपरीत नहीं करना योग्य है ।। १४१ ॥ G अथ मंदिस्मुहूर्तम् । अब मंदिर बनानेका मुहूर्त कहिये तहां जो वस्तु अत्यावश्यक वर्जनीय है अथवा कर्तव्य है सो कहिये कालनागमावर्ण्य मानयेत् भूपसीमधरपार्श्वकान्मुदा। ज्योतिरर्थपरिपूर्णकारुकैः संनियोज्य खनिमुत्तमा क्रियात् ॥ १४२ ।। प्रथम नीवका रोपणमें राह चक्रनै वर्जित करि राजाज्ञा लेय सीमाने देनेवाला तथा पार्श्ववर्तीनिनै प्रसन्नतापूर्वक सन्मानित करै ग्रह ज्योतिषी अरु कारीगरने संयोजन करि उत्तम खनि न्यो है ताहि करै खात करि नीवभरै॥१४२॥ HCOURSITRA For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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