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________________ RECARICOLORCA AACROR वाहवाहिन्युत्तमे तीरदेशे पुण्यस्त्रीभिर्मंगलध्वानरम्यं । गत्वा शुद्ध संवरं स्वर्णकुम्भे संग्राह्योच्चै नीयतां वेदिकायाम् ॥ ३४०॥ यज्ञकर्ता पवित्र स्त्रियांका मंगल शब्द-पूर्वक सुन्दर गंगा सिंधु आदि नदोनका उत्तम तीर-प्रदेशम प्राप्त होय अरु शुद्ध सुवर्णका कुंभ जल ग्रहण करि उच्च वेदीम ल्यावै ॥ ३४०॥ वेद्या मूले पंचरत्नोपशोभं कंठेलंबान्माल्यमादर्शयुक्तं । माणिक्याभं कांचनं पूगदर्भस्रक्वासोभं सद्घटं स्थापयेद वै ॥ ३४१ ॥ बहरि वेदका मूलम रत्न-पंचक पंच वर्णात्मक करि शोभित अरु कंठमें लंबायमान है माला पुष्पनिकी जाके, अरु दर्पण-संयुक्त अरु माणिक्य वर्ग सुवर्णमयी अरु सुपारी दर्भ पुष्प वस्त्र करि भासमान, ऐसा घटकू स्थापन करै॥३४१॥ कलश स्थापनका इह मंत्र पढ़ना ओं हीं अहं मंगलकलशकस्थापन करोमि स्वाहा ।। इति कलशस्थापन॥ अब इस यज्ञमें दोय वेदी सम्मत हैं। एक तौ याग-पंडलके वास्ते मुख्य वेदी, अरु दुजी उत्तरकर्म जप ध्यान मंत्र आदिके निमित्त उत्तर SCARENA R RIAGEGRECRUARREGNER अथोत्तरस्मै कृतिकर्मणे कृती वेदी द्वितीयां विनिवर्त्य पावनीं। यागीयमंत्राणि तथोत्तरं पृथक् कर्मारंभतां यजनक्रियोचितं ॥ ३४२ ॥ अथानंतर यज्ञका कर्त्ता उत्तर क्रियाकर्म के निमित्त दूसरी पवित्र वेदीकू रचि, उसमें यज्ञके मंत्रनकूतथा यज्ञ-क्रियाके योग्य कम जुदा । प्रारंभ करै॥३४२॥ अलेव शैलानयनं विधाय मुहूर्त्तवर्ये विधिवेदिशिल्पी। पद्मासनकायविसर्जनांकं विंबं जिनेंद्रस्य घटेत युक्त्या ॥३४३ ॥ Jain Education For Private & Personal use only m elibrary.org
SR No.600041
Book TitlePratishthapath Satik
Original Sutra AuthorJaysenacharya
Author
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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