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प्रतिष्ठा
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बहुरि - हे कुबेर ! ह समवसरणका चित्रकार ! तुम वेद-मंत्रन करि माणिक्य मणि अरु तांडा नामक मणिका चूर्णने हस्त ग्रहण करि जिनेंद्रका विबकी प्रतिष्ठा यज्ञ में मंडलनें लिखि देवनका गण कृतकृत्य होउ ॥ ३३६ ॥
रक्तचूर्णस्थापनं ॥
गारुत्मताश्म शिखिकंठमारीप्रवाहजातः सुकौशलकृता हृदयापहारी । चूर्णोलिपक्षसमतामुपनीय यक्षराजेन मंडलविधौ विनियोक्तुमिष्टः ॥ ३३७ ॥
बहुरि नीलकंठ मणि अरु मयूरकंठ मणिका प्रवाहमें उत्पन्न भयौ ऐसा चतुराई करनेहारेनका हृदयकू' हरणेवारो चूर्ण है सो भ्रमर - पक्षकी समानता प्राप्त होय कुवेरनैं मंडलका विधान में विनियोग करनेकू इष्ट किया है ॥ ३३७ ॥ कृष्णचूर्णस्थापनं ॥
वेदकाच्या स्थापन करै ॥ ३३८ ॥
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कोणेषु वेद्याश्चतुरस्रदेशे संस्थाप्य गाढं घनघातयोगात् ।
सीरकान् शंकुवदासितांश्च काष्ठाविमूढीं शिथिलीकरोतु ॥ ३३८ ॥
कोणा गाढ़ा घणकी चोटतें समीचीन कीलां समान हीरानें स्थापित करि दिग - मूढता निवारण करौ । ऐसें हीरक
इति वेद्याः कोणे हीरक स्थापन ॥
ऐसें पृथक् पृथक् मं ंत्र पढ़ि करि पंच वर्णका चूर्ण कू स्थापन करे श्ररु मंडल लिखै ॥ आर्गै अन्य विधि कहिये हैं,— स्थाने स्थाने संनिवेश्याः पताका लघ्वः स्थूला उन्नतांशा महोर्व्याम् । वादिलाणां नादपूर्वं वरस्त्रीगीतध्वानैमंगलार्थैरनूनैः ॥ ३३६ ॥
बहुरि ठिक ठिका मंगल अर्थ करावना ॥
छोटी बावडी ध्वजा ऊंची स्थापन करनी, अरु यज्ञभूमिमें वादिनका शब्द- पूर्वक बहुत सुन्दर स्त्रियोंका गीत-गान ३३६ ॥
इति वेद्यग्रभूमौ च वेदपरितो लघुपताका स्थापनं ॥
ऐसें वेदीकी अग्रभूमि तथा चहुओर छोटी ध्वजा स्थापन करनी । अब मंगल-कलसका स्थापन कहिये हैं,—
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पाठ
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